
(गद्य-सृजन)
मानव-जीवन का सत्य केवल बाहरी जगत तक सीमित नहीं है। उसके भीतर भी चार परतें हैं, चार ध्रुव हैं, जिनके सहारे अस्तित्व अपनी संपूर्णता प्राप्त करता है। इन्हीं को “चतुष्तैत” कहा जाता है।
प्रथम अन्नमय कोश है, जिसे हम शरीर कहते हैं। यह पृथ्वी की मिट्टी से उत्पन्न होता है, अन्न से पोषित होता है और अंततः मिट्टी में ही विलीन हो जाता है। शरीर हमें कर्म-क्षेत्र में लाता है और अनुभव देता है, किन्तु स्वयं में यह अनश्वर नहीं है। इसके बिना आत्मा का प्रकट होना संभव नहीं, पर यह स्वतंत्र सत्ता नहीं है।
द्वितीय मनोमय कोश है, जिसे मन कहते हैं। यहाँ विचारों, भावनाओं और इच्छाओं का प्रवाह है। यह हमारे भीतर की तरंगों के समान है—कभी शांत झील, कभी उफनती नदी। मन ही सुख-दुःख, राग-द्वेष, स्मृति और कल्पना का अनुभव कराता है। यदि मन चंचल है तो साधक विचलित रहता है, और यदि मन शांत है तो सत्य का आभास होने लगता है।
तृतीय विज्ञानमय कोश है, जिसे बुद्धि का क्षेत्र कहते हैं। यह विवेक और निर्णय का आधार है। यहीं अज्ञान और ज्ञान, माया और सत्य में भेद करने की क्षमता निहित है। जब बुद्धि अंधकार में उलझी रहती है, तो मन और शरीर भी भटकते हैं; पर जब बुद्धि ज्योतिर्मय होती है, तब जीवन का मार्ग प्रकाशित हो उठता है।
चतुर्थ और अंतिम आनंदमय कोश है, जिसे आत्मा का क्षेत्र कहते हैं। यह शुद्ध, अविनाशी और निरंतर सत्ता है। यहाँ कोई द्वैत नहीं, कोई क्लेश नहीं। यह स्वयं में प्रकाश है, स्वयं में सत्य है और स्वयं में पूर्णता है। आत्मा न शरीर के सुख-दुःख से बंधती है, न मन की तरंगों से, न बुद्धि के संशयों से। यह केवल स्वतंत्र, अखंड और शाश्वत “होने” का अनुभव है।
इन्हीं चारों तत्त्वों का संतुलित समन्वय ही “चतुष्तैत” है। यदि शरीर स्वस्थ हो, पर मन अशांत हो, तो जीवन अधूरा रह जाता है। यदि बुद्धि प्रखर हो, पर आत्मा से दूरी हो, तो ज्ञान भी अहंकार बन जाता है। किंतु जब चारों ध्रुव आपस में सामंजस्य स्थापित करते हैं, तभी जीवन अपनी पूर्णता को प्राप्त करता है। यही “चतुष्तैत” है।
इस प्रकार, चतुष्तैत हमें यह सिखाता है कि मनुष्य केवल एक देह नहीं, केवल एक मन नहीं, केवल एक बुद्धि नहीं—बल्कि इन तीनों से परे आत्मा का द्योतक है। इस समग्रता को पहचानना ही आत्मबोध और मुक्ति का मार्ग है।
योगेश गहतोड़ी