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किनारे पे बैठा हूँ,


किनारे पे बैठा हूँ, निहार रहा हूँ पतवार,
बहती धारा में ढूँढ रहा हूँ—
टूटे मकान का आधार।

तेज़ जल की कलोल में बह गया
सुख-दुख का सामान,
कुछ खुशियाँ, कुछ सपने,
बिखरे सब अरमान।

रेत भी बह रही थी,
बह रहा था नीला आसमान,
दम तोड़ती आवाज़ें गुज़र रही थीं—
मानो ख़त्म हो रहा जहान।

धरती वीरान थी,
कहीं फट रहा था आसमान,
जीवन देने वाला जल,
छीन रहा था निवास।

किनारे पर बैठा हूँ,
निहार रहा हूँ मल्लाह,
काश! कोई चमत्कार
मुझे पहुँचा दे उस पार।

झर-झर बहती नदियाँ,
जाने किसे पुकार रही हैं,
मैं अपने कर्म टटोल रहा हूँ—
शायद अब न जाऊँ उस पार।

ये नीर-निरंतर बहाव क्यों खून की धार लगे,
ये सैलाब की पुकारें किसके अरमान जला गईं?

आर एस लॉस्टम

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