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समाधि पाद


सूत्र— २
योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः ।

चित्त की वृत्तियों का निरोध {सर्वथा रुक जाना} योगः= योग है ।
अनुवाद— चित्त की वृत्तियों का सर्वथा रुक जाना {निरोध} योग है ।

व्याख्या— इस सूत्र में कहा गया है की चित्त की वृत्तियों का सर्वथा रुक जाना ही योग है । योग संकल्प की साधना है । यह अपनी इंद्रियों को बस में कर चेतन आत्मा से संयुक्त होने का विज्ञान है ।
यह किसी जाति, वर्ग में भेद नहीं करता न शास्त्र है ना धर्म ग्रंथ ।
यह एक अनुशासन है मनुष्य के शरीर इन्द्रियां मन आदि को पूर्ण अनुशासित करने वाला विज्ञान है । चित्त वासनाओं का पुंज है । अनेक जन्मों के कर्म संस्कार इसमें विद्यमान है जिससे हमेशा इसमें वासना की तरंगे उठती रहती हैं ।
चैतन्य आत्मा इससे परे है । जब तक महासमुद्र में तरंगे उठती रहती हैं तब तक चंद्रमा का प्रतिबिंब उसमें स्पष्ट दिखाई नहीं देता इसी प्रकार चित्त में वासना की तरंगों के निरंतर उठते रहने से आत्म-ज्योति का बोध नहीं होता । {योग नहीं होता} । इसलिए पतंजलि कहते हैं की चित्त की वृत्तियों का सर्वथा रुक जाना ही ‘योग’ है ।
इसी से चैतन्य आत्मा का ज्ञान होगा तथा इसी ज्ञान से मोक्ष होगा । ये चित्त की वृत्तियाँ बहिर्मुखी हैं जो सदा संसार की ओर भागती हैं इसलिए मन सदा चंचल बना रहता है । इन वृत्तियों की तरंगों को सर्वथा रोक देने से ही योग हो जाता है, अन्य कुछ नहीं करना पड़ता । बुद्धि और मान चित्त की अवस्थाएँ हैं । इस चित्त वृत्ति निरोध को ‘अमनी-अवस्था’ भी कहते हैं । कबीर ने इसे ‘सुरति’ कहा है । इसके स्थिर होने पर साधन केवल साक्षी या दृष्टा मात्र रह जाता है, वासनाएं सभी छूट जाती हैं । यही आत्मज्ञान की स्थिति है ।
पतंजलि ने बहुत ही संक्षेप में समस्त योग का सार एक ही सूत्र में रख दिया कि ‘चित्त की वृत्तियों का निरोध ही योग है’ ।
यही सारभूत सत्य है ।।

स्रोत— पतंजलि योग सूत्र
लेखन एवं प्रेषण—
पं. बलराम शरण शुक्ल
हरिद्वार

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