
(स्वरचित कविता)
अक्षरों में प्रथम, स्वर का आधार,
सृष्टि में गूँजा है, यह अकार अपार।
शब्दों का बीज, ध्वनि का श्रृंगार,
ज्ञान की जड़, जीवन का है द्वार।
अकार से ही खुला है भाषा का द्वार,
नाद अनादि का है यह एक उपहार।
ऋग्वेद से उपनिषद तक है विस्तार,
सत्य का प्रतीक है अक्षर अकार।
नवजात की मुस्कान में गूँजे अकार,
माँ की लोरी में छिपा यह मधुर सार।
जीव-प्राण की गति में पाता है अकार,
हृदय की धड़कन का यह प्रथम गुंजार।
अकार बिना न होता मंत्रों का उच्चार,
न वेदों का गान, न शास्त्रों का विस्तार।
योगी का है ध्यान, ऋषियों का है आधार,
ब्रह्म से जो मिलाता है, यह अक्षर अकार।
अकार है ज्योति, अकार है प्राण,
अकार से जग में फैला विज्ञान।
सूक्ष्म से स्थूल तक इसका गान,
अकार है अनंत, अकार महान।
नाभि से उठे जब प्राण का सार,
गूँजे वहाँ गुप्त रूप से अकार।
श्वास की धारा का प्रथम आधार,
नाभि-कमल में इसका विस्तार।
अकार है सरल, अकार है शुद्ध,
मन को बनाए यह निर्मल, बुद्ध।
सात्विक भाव जगाए अपार,
अज्ञान हर ले अक्षर अकार।
अकार बिना जग माया का धुंध है,
ज्ञान बिना जीवन अंधकारमय है।
अंतर में जब उठें लोभ-विकार,
मनुज न पाता सत्य का द्वार।
अकार का जाप जो श्रद्धा से हो,
मन निर्मल, जीवन आनंद से हो।
सांसें मिलती हैं ब्रह्म की धारा से,
अकार से साधक जुड़े जब दिल से।
अकार से मिलता आत्मा का ज्ञान,
कट जाते बंधन, मिट जाता अज्ञान।
जीव और शिव में भेद नहीं रहता,
साधक जग में अद्वैत का संदेश देता।
अकार जपे जो जन अनन्य भाव से,
मुक्त हो जाता है वह जगत-व्यापी ताप से।
वही नर संसार-सागर में पाए किनारा,
ब्रह्मनाद का आनंद देता, अकार हमारा।
योगेश गहतोड़ी