
सुबह का समय था। गंगा किनारे हल्की धुंध फैली हुई थी। तट पर घंटियों और शंख की ध्वनि गूँज रही थी। नदी का प्रवाह शांत था, लेकिन उसमें एक अनोखी गंभीरता थी, मानो वह सृष्टि के सभी दुख और स्मृतियों को अपने साथ बहा ले जाने को तैयार हो। इसी किनारे पर निरंजन अपने पिता की तेरहवीं संस्कार के लिए बैठा था।
पंडित जी ने तिल और जल उसकी हथेली पर रखा और मंत्रोच्चार करते हुए कहा— “अब इन्हें गंगा में अर्पित करो।” निरंजन के हाथ काँप रहे थे। वह जानता था कि यह केवल एक संस्कार नहीं है, यह विदाई है। विदाई उस पिता की, जिन्होंने उसे जीवन जीने की राह दिखाई थी, और विदाई उन स्मृतियों की, जिन्हें अब सम्मान देकर आगे बढ़ना था।
जैसे ही पहला अर्घ्य गंगा में प्रवाहित हुआ, निरंजन की आँखों में बचपन की छवियाँ उमड़ आईं। पिता का हाथ पकड़कर मेले में घूमना, साइकिल चलाना सीखते समय गिरने पर उन्हें उठाना और पढ़ाई में गलती करने पर सख्ती से समझाना—ये सब स्मृतियाँ जल की धार में घुल गईं। वह रो-रो कर बुदबुदाया और अंदर ही अंदर बोला “पिताजी, आपके संस्कार ही मेरी सबसे बड़ी संपत्ति हैं।”
दूसरे अर्घ्य के साथ उसका मन भीतर की ओर मुड़ा। उसे एहसास हुआ कि यह तिलांजलि केवल पिता की आत्मा को शांति देने के लिए नहीं है, बल्कि उसके अपने जीवन के बोझों को भी विदा करने का अवसर है। वह वर्षों से असफलताओं को ढो रहा था, कटु अनुभवों और अपराधबोध से दबा हुआ था। उसने धीरे-धीरे फुसफुसाते हुए कहा— “आज मैं इन्हें शरीर भी से तिलांजलि देता हूँ। अब मुझे यह शरीर रूप में नहीं मिल पाएंगे।”
तीसरा अर्घ्य जल में डालते हुए उसके भीतर एक और परिवर्तन हुआ। उसने सोचा, “यह तिलांजलि केवल अतीत की नहीं है, यह मेरे अहंकार, मेरे भय और मेरी सीमाओं की भी विदाई है। पिताजी ने हमेशा मुझे आगे बढ़ने की प्रेरणा दी। अगर मैं उनके नाम पर भी अंधेरे में जीता रहूँ, तो यह उनके संस्कारों का अपमान होगा।”
गंगा की धारा में तिल और जल बहते रहे। लहरें मानो संदेश दे रही थीं— “त्यागो और आगे बढ़ो।”
निरंजन की आँखों से आँसू बह निकले, लेकिन इस बार यह आँसू केवल शोक के नहीं थे, यह शुद्धि के आँसू थे। उसके भीतर से एक अहसास उतर गया।
संस्कार की समाप्ति के बाद वह गंगा तट पर देर तक बैठा रहा। अब उसे लगा कि तिलांजलि केवल एक धार्मिक कर्मकांड नहीं है। यह जीवन का एक गहरा प्रतीक है, अतीत को सम्मान देकर उसे विदा करना, ताकि वर्तमान और भविष्य को नई दृष्टि से जिया जा सके।
निरंजन ने उठते हुए मन ही मन प्रतिज्ञा की— “पिताजी, आपके आदर्शों को मैं जीवनभर साथ रखूँगा। आज मैंने आपको तिलांजलि दी, पर वास्तव में यह तिलांजलि मेरे भीतर के अंधकार की भी थी। अब मैं आपके दिए प्रकाश में आगे बढ़ूँगा।”
योगेश गहतोड़ी