
सूत्र— ६
प्रमाण विपर्ययविकल्प निद्रा स्मृतयः ।
प्रमाण विपर्ययविकल्पनिद्रास्मृतयः =१. प्रमाण, २.विपर्यय, ३. विकल्प, ४. निद्रा, ५.स्मृति— यह पांच हैं ।
अनुवाद— प्रमाण, विपर्यय, विकल्प, निद्रा और स्मृति यह पांच वृत्तियाँ हैं ।
व्याख्या— ‘चित्त’ पुरुष और प्रकृति का संयुक्त रूप है जो उस पुरुष {आत्मा} के कार्य सक्रिय होता है । चित्त की निम्न पाँच प्रकार की वृत्तियां हैं जो सांसारिक ज्ञान का आधार है जिसका निरोध होने पर वह अपने प्रकृति जन्य स्वरूप को त्याग कर आत्म स्वरूप में स्थित हो जाता है । ये वृत्तियाँ हैं—
१. प्रमाण वृत्ति– इस वृत्ति के कारण वह प्रमाणों के आधार पर किसी वस्तु के सत्य स्वरूप को जानने की चेष्टा करता है यह वृत्ति इंद्रिय विषयों के पूर्वाभ्यास से संबंधित विषयों के प्रसंग आने पर उभरती है ।
२. विपर्यय वृत्ति– इस वृत्ति के कारण उसे कोई वस्तु जैसी है वैसी ना दिखाई देकर उसमें अन्य वस्तु का भ्रम हो जाता है जैसे रस्सी में सांप की भ्रांति हो जाना वस्तु स्थिति की जानकारी न होने से इसका प्रतिकूल ज्ञान होता है । इससे वह असत् को सत् तथा सत् को असत् मानने लगता है ।
३. विकल्प वृत्ति– इस वृत्ति के कारण वह किसी वस्तु के ना होते हुए भी उसकी कल्पना करता है जैसे ईश्वर को किसी ने नहीं देखा किंतु उसके स्वरूप की कल्पना करना भय, आशंका, संदेह, अशुभ संभावना आदि की उपस्थिति के अभाव में भी उसकी कल्पना करना ।
४. निद्रा वृत्ति– जिसमें कुछ भी दिखाई ना दे किंतु उस अभाव की प्रतीति होती है । आलस्य, प्रमाद, उपेक्षा, अवसाद, अनुत्साह है इसी वृत्ति के कारण होता है ।
५. स्मृति वृत्ति– इसके कारण जो देखा या जाना गया है उसका पुनः स्मरण हो आता है । वे संस्मरण जो निकृष्ट योनि में रहते समय अभ्यास में आते रहे हैं, स्वभाव के अंग बन जाते हैं। उसकी छाया मनुष्य योनि में भी छाई रहती है जिससे मनुष्य पशु तुल्य व्यवहार करता देखा जाता है ।
योग साधना का उद्देश्य इन दुष्प्रवृत्तियों के साथ संघर्ष करना है जो पशु योनियों से चली आ रही है । आत्मा की गरिमा पर यह पशु वृत्तियाँ हावी हो रही है जिसको हटाने के लिए संघर्ष करना पड़ेगा ।
योग में इसी के निरोध की बात कही गई है जिससे आत्मा अपने शुद्ध स्वरूप में प्रकट हो सके ।
योग के अभ्यास से ही तत्व ज्ञान होता है जिसे आठ अंगों में पूर्ण करना होता है ।
योग बाजीगरी का खेल नहीं है ना कोई कसरत है ना शारीरिक का स्वास्थ्य लाभ के लिए है शरीर एवं मन की शुद्धि से ही योग होता है अशुद्धि किसी भी स्तर की हो उसे हटाना आवश्यक है ।
स्रोत— पतंजलि योग सूत्र
लेखन एवं प्रेषण—
पं. बलराम शरण शुक्ल
हरिद्वार