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और, बताओ!


मुस्कुराई थी, अचरज बड़ा था।
फिर हाथ में लिया पत्र पढ़ा था।
” अत्र कुशलम तत्रास्तु,मेरी बहना,
सब कुशल? तुम कैसी हो आज कहना।

  वहां पत्र लिए मैं खड़ी थी, 
    प्रश्नों की लगी झड़ी थी।
   " और बताओ, सब कैसे हैं??
    बड़ा सा आंगन, नीम का पेड़,
    बरगद,पनघट, खेत की मेड़??
    वह वेद जी, वह सरपंच काका?? "
     खड़ी थी मैं,  होकर निर्वाक।
     उसे कैसे कह दूं,वो गांव 
     जो तेरे दिल में बसा है,आज 
     आधुनिकता की दौड़ में फंसा है!!
     बरगद, पनघट,आंगन नदारद है।
    " और बताओ" कहना तो तेरीआदत है!!!!
   सुलेखा चटर्जी,

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