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भावपल्लवन

माण्डूक्य उपनिषद् का पाँचवाँ मंत्र

श्लोक
“उकारः स्वप्नस्थान आत्मा,अन्तःप्रज्ञः,
सप्ताङ्गः, एकोनविंशतिमुखः।”

यह माण्डूक्य उपनिषद् का पाँचवाँ मंत्र है। माण्डूक्य उपनिषद् वेदांत दर्शन का संक्षिप्त किन्तु अत्यन्त गूढ़ उपनिषद् माना जाता है। इसमें ‘ॐ’ के तीन अक्षरों—अ, उ, म और तुरीय अवस्था के माध्यम से सम्पूर्ण ब्रह्मज्ञान का सार प्रस्तुत किया गया है। प्रत्येक अक्षर मानव-चेतना की किसी न किसी अवस्था का प्रतीक है। इस पाँचवें मंत्र में ‘उकार’ का वर्णन आत्मा के स्वप्नस्थान, अन्तःप्रज्ञ, सप्ताङ्ग और एकोनविंशतिमुख स्वरूप के रूप में किया गया है। यह मंत्र केवल स्वप्न की अवस्था का दार्शनिक विश्लेषण ही नहीं करता, बल्कि आत्मा और ब्रह्माण्ड के गहन सम्बन्ध का भी उद्घाटन करता है।

ब्रह्मनाद के आयामों में उकार का विशेष महत्व है। यह “ॐ” का दूसरा अक्षर है, जो जीवन की स्वप्नावस्था, पालन और विस्तार का प्रतीक माना जाता है। जहाँ अकार सृष्टि और आरंभ का द्योतक है, वहीं उकार गति, विकास और अनुभव के विस्तार का आयाम है। यह मनुष्य को भीतर की चेतना से जोड़ते हुए उसे आन्तरिक प्रज्ञा और विवेक की ओर ले जाता है। ब्रह्मनाद के प्रवाह में उकार उस ध्वनि का रूप है, जो जागृति और समाधि के मध्य स्थित अवस्था को दर्शाती है। इसमें आत्मा बाहरी संसार से हटकर अंतर्मन की गहराइयों में यात्रा करती है। इस प्रकार उकार न केवल ब्रह्मनाद का महत्वपूर्ण आयाम है, बल्कि यह जीवन में संतुलन, पालन और आत्मिक उन्नति की राह भी प्रशस्त करता है।

“उकारः स्वप्नस्थान आत्मा, अन्तःप्रज्ञः, सप्ताङ्गः, एकोनविंशतिमुखः।” — यह मंत्र समझाता है कि आत्मा का स्वरूप केवल जाग्रत अवस्था तक सीमित नहीं है, बल्कि स्वप्नावस्था में भी वह सक्रिय रहकर आन्तरिक चेतना का अनुभव कराता है। इस अवस्था में आत्मा बाहरी इन्द्रियों से विमुख होकर भीतर की ओर केन्द्रित होती है और अन्तःकरण की चतुष्टयी—मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार—के माध्यम से अनुभव करते हैं। ‘सप्ताङ्ग’ और ‘एकोनविंशतिमुख’ रूप आत्मा की ब्रह्माण्डीय एवं सूक्ष्म शक्तियों का प्रतीक है। इस प्रकार यह मंत्र साधक को यह शिक्षा देता है कि आत्मा की पहचान केवल शारीरिक जगत तक सीमित नहीं, बल्कि भीतर और बाहर दोनों स्तरों पर व्यापक और अनन्त है।

शब्दार्थ
उकारः – ॐ का दूसरा अक्षर ‘उ’

स्वप्नस्थान आत्मा – आत्मा का वह स्वरूप जो स्वप्नावस्था में स्थित रहता है

अन्तःप्रज्ञः – भीतर के ज्ञान में जाग्रत; बाह्य विषयों से निवृत्त होकर आन्तरिक चेतना में स्थित

सप्ताङ्गः – सात अंगों से युक्त (आकाश, अग्नि, सूर्य, वायु, चन्द्रमा, दिशाएँ, पृथ्वी)

एकोनविंशतिमुखः – उन्नीस मुखों वाला (5 ज्ञानेन्द्रियाँ, 5 कर्मेन्द्रियाँ, 5 प्राण और मन, बुद्धि, चित्त एवं अहंकार)

भावार्थ
१. उकारः
‘ॐ’ के तीन अक्षर—अ, उ और म—जीवन की तीन अवस्थाओं का प्रतीक माने गए हैं। इनमें से दूसरा अक्षर ‘उ’ को स्वप्नावस्था का प्रतिनिधि बताया गया है। जाग्रत में इन्द्रियाँ बाहर की ओर प्रवाहित होती हैं, पर ‘उकार’ हमें भीतर की ओर ले जाता है। दार्शनिक दृष्टि से ‘उ’ विष्णु का प्रतीक है, जो पालन और संतुलन के अधिष्ठाता हैं। इस प्रकार ‘उकार’ का जप और ध्यान साधक को स्थिरता, संरक्षण और आंतरिक संतुलन की ओर अग्रसर करता है।

२. स्वप्नस्थान आत्मा
आत्मा का वह रूप जो स्वप्नावस्था में स्थित होता है। जब शरीर शिथिल होकर विश्राम करता है, तब भी मन जागृत रहता है और स्मृतियों व संस्कारों के आधार पर स्वप्न का अनुभव करता है। इस अवस्था में आत्मा बाहर की इन्द्रियों से नहीं, बल्कि भीतर की वृत्तियों से जुड़कर जगत् का अनुभव करती है। अतः आत्मा का यह रूप स्वप्नस्थान कहलाता है। यह हमें बताता है कि हमारी चेतना केवल बाहरी जगत पर निर्भर नहीं, बल्कि भीतर की गहराइयों में भी सक्रिय रहती है।

३. अन्तःप्रज्ञः
स्वप्नावस्था में आत्मा को अन्तःप्रज्ञ कहा गया है। ‘अन्तः’ का अर्थ है— भीतर, और ‘प्रज्ञ’ का अर्थ है— ज्ञान या चेतना। जाग्रत अवस्था में आत्मा ‘बाह्यप्रज्ञ’ है क्योंकि वह इन्द्रियों द्वारा बाहरी वस्तुओं को ग्रहण करती है, लेकिन स्वप्न में आत्मा भीतर की ओर केन्द्रित होती है। यह स्थिति साधक को यह शिक्षा देती है कि सत्य केवल बाहरी जगत् में नहीं, भीतर भी विद्यमान है। आत्मबोध की यात्रा तब आरम्भ होती है जब मनुष्य अपने अंतराल में झाँककर वहाँ के अनुभवों को पहचानना सीखता है।

४. सप्ताङ्गः
स्वप्नावस्था की आत्मा को ‘सप्ताङ्ग’ भी कहा गया है, अर्थात् सात अंगों से युक्त। उपनिषद् में यह स्पष्ट किया गया है कि आत्मा का स्वरूप केवल शरीर तक सीमित नहीं है, बल्कि सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के अंगों से जुड़ा हुआ है। ये सात अंग हैं—आकाश, अग्नि, सूर्य, वायु, चन्द्रमा, दिशाएँ और पृथ्वी। ये केवल प्राकृतिक तत्व ही नहीं, बल्कि ब्रह्माण्डीय शक्तियों का प्रतीक हैं। स्वप्नावस्था में भी आत्मा इन्हीं तत्वों के आधार पर अनुभव करती है। इससे यह शिक्षा मिलती है कि आत्मा का अस्तित्व व्यक्ति तक सीमित न होकर समस्त विश्व से अभिन्न रूप से जुड़ा हुआ है।

५. एकोनविंशतिमुखः
आत्मा को एकोनविंशतिमुख अर्थात् उन्नीस मुखों वाला कहा गया है। यहाँ ‘मुख’ का अर्थ द्वार या साधन है, जिनसे आत्मा अनुभव प्राप्त करती है। ये १९ द्वार हैं—

  1. पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ (नेत्र, कर्ण, घ्राण, रसना, त्वचा)
  2. पाँच कर्मेन्द्रियाँ (वाणी, हाथ, पैर, गुदा, उपस्थ)
  3. पाँच प्राण (प्राण, अपान, व्यान, उदान, समान)
  4. अन्तःकरण चतुष्टयी (मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार)

इन द्वारों से आत्मा स्वप्नावस्था में भी जगत का अनुभव करती है। यह अनुभव सूक्ष्म और आन्तरिक होता है। इससे स्पष्ट होता है कि आत्मा केवल बाहरी जगत को ही नहीं, बल्कि भीतर की सूक्ष्म दुनिया का भी अनुभव कराती है।

इस मंत्र का सार यह है कि ‘उकार’ आत्मा की स्वप्नावस्था का प्रतीक है, जहाँ आत्मा अन्तःप्रज्ञ होकर भीतर की ओर केंद्रित रहती है। यह अवस्था बताती है कि आत्मा केवल शरीर तक सीमित नहीं, बल्कि सप्ताङ्ग स्वरूप से ब्रह्माण्ड से जुड़ी हुई है और एकोनविंशतिमुख रूप से १९ द्वारों के माध्यम से अनुभव करती है। स्वप्न हमें यह सीख देते हैं कि आत्मा का मार्ग भीतर से होकर ही परमात्मा की ओर जाता है।

“उकार और विष्णु : पालन एवं संतुलन के प्रतीक”
भारतीय दर्शन में त्रिदेवों की व्यवस्था सृष्टि के संचालन का प्रतीक है। ब्रह्मा सृष्टि के जनक हैं, विष्णु पालन एवं संरक्षण के अधिकारी हैं और महेश (शिव) संहार के देवता हैं। यह त्रिमूर्ति केवल देवताओं की उपासना का भाव नहीं है, बल्कि जीवन के गहरे नियमों की अभिव्यक्ति भी है। इन तीनों में विष्णु का कार्य संतुलन बनाए रखना है। वे न केवल संसार का पोषण और संरक्षण करते हैं, बल्कि धर्म की रक्षा और अधर्म के क्षय का भी भार संभालते हैं।

इसी प्रकार, माण्डूक्य उपनिषद् में वर्णित “उकार” का सम्बन्ध भी विष्णु से माना गया है। जैसे विष्णु जगत् में संतुलन, स्थिरता और पालन का कार्य करते हैं, वैसे ही “उकार” साधक को आंतरिक संतुलन और धैर्य का पाठ पढ़ाता है। जब साधक “उकार” के स्वरूप पर मनन करता है, तो उसके भीतर जीवन की जिम्मेदारियों को निभाने की शक्ति, मन की स्थिरता और संतुलन विकसित होता है। इस प्रकार ‘उकार’ केवल स्वप्नावस्था का द्योतक नहीं, बल्कि जीवन में पालन, संरक्षण और स्थिरता की शक्ति का भी प्रतीक है।

उकार: स्वप्न और आत्मज्ञान की यात्रा
स्वप्नावस्था में विशेष रूप से अन्तःकरण की चतुष्टयी सक्रिय रहती है—मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार।

  1. मन विविध कल्पनाएँ करता है।
  2. बुद्धि उन कल्पनाओं में से चयन कर निर्णय लेती है।
  3. चित्त स्मृतियों और संस्कारों को संजोकर अनुभवों का आधार बनाता है।
  4. अहंकार ‘मैं’ की भावना बनाए रखकर व्यक्ति की पहचान को दृढ़ करता है।

ये चारों तत्व मिलकर आत्मा को बाहर से हटाकर भीतर की ओर मोड़ते हैं, जिससे साधक आत्मनिरीक्षण की प्रक्रिया आरम्भ करता है। यही आंतरिक यात्रा साधना का प्रथम चरण बनती है, जो अंततः आत्मबोध और आत्मज्ञान की ओर मार्ग प्रशस्त करती है।

उकार साधना से जीवन में परिवर्तन
यदि मनुष्य ‘उकार’ के रहस्य को समझकर उसका साधन करता है, तो उसके जीवन में चार महत्त्वपूर्ण परिवर्तन घटित होते हैं—

  1. मानव में आत्मनिरीक्षण की प्रवृत्ति उत्पन्न होती है, जिससे वह भीतर झाँककर अपने संस्कारों और विचारों को पहचानने लगता है।
  2. मानव में संतुलन और संरक्षण का भाव जाग्रत होता है, जो जीवन में धैर्य और स्थिरता प्रदान करता है।
  3. मानव की आन्तरिक शक्ति प्रकट होती है, जिससे कल्पनाशक्ति और सूक्ष्म चेतना का विकास होता है।
  4. अंततः, यह साधना उसे आत्मबोध और मुक्ति के मार्ग की ओर अग्रसर करती है, जहाँ आत्मा शुद्ध होकर मोक्ष की दिशा में प्रगति करती है।

इस श्लोक का निष्कर्ष यह है कि माण्डूक्य उपनिषद् का पाँचवाँ मंत्र केवल स्वप्नावस्था का वर्णन नहीं करता, बल्कि सम्पूर्ण जीवन और साधना का मार्ग भी दर्शाता है। ‘उकार’ हमें सिखाता है कि आत्मा केवल बाहरी अनुभवों तक सीमित नहीं है, बल्कि उसकी वास्तविक शक्ति भीतर की ओर है। स्वप्नावस्था में आत्मा अन्तःप्रज्ञ बनकर अंतर्यात्रा कराती है और हमें यह समझाती है कि आत्मबोध का मार्ग आत्मनिरीक्षण और आंतरिक संतुलन से ही खुलता है। ‘उकार’ का सम्बन्ध विष्णु से है, जो संरक्षण और संतुलन के प्रतीक हैं, और यही गुण साधक के जीवन में भी विकसित होते हैं।

इस प्रकार, ‘उकार’ साधना साधक को धैर्य, स्थिरता, आत्मशुद्धि और अंततः आत्मज्ञान एवं मुक्ति की ओर ले जाने वाला सेतु है।

योगेश गहतोड़ी ( ज्योतिषाचार्य)

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