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“अपने कितने अपने”

मुश्किल जब हालात हों
अपने कितने अपने हैं,
तब समझ आते हैं।
आश लगाने पर थोड़ी सी,
कर देते हैं किनारा अक्सर
वो अंतिम पंक्ति में नजर आते हैं।

हंसती जब अपनी बगिया हो,
भंवरे बन सब मंडराते हैं।
दुख के बादल जैसे घिर आए
सब हवा बन उड़ जाते हैं।

खुशबू फूल की सब चाहते हैं
खार नहीं कोई चुनना चाहे।
मतलब परस्त इस दुनिया में…
कौन अपना भला कैसे समझ आए।

स्वार्थ में लिप्त इन रिश्तों की
वक्त ही पहचान कराता है।
किस पर करें भरोसा कितना
यह हम को समझाता है।


उर्मिला ढौंडियाल ‘उर्मि’
देहरादून (उत्तराखंड)

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