
सूत्र– ८
विपर्ययो मिथ्याज्ञानमेतद्रूपप्रतिष्ठम् ।
तद्रूपप्रतिष्ठम्= जो उस वस्तु के स्वरूप में प्रतिष्ठित नहीं है, ऐसा; मिथ्याज्ञानम्= मिथ्या ज्ञान; विपर्ययः= विपर्यय है ।
अनुवाद– वस्तु में अन्य वस्तु का जो मिथ्या भ्रम पूर्ण ज्ञान होता है वह विपर्यय है ।
व्याख्या– किसी वस्तु को देख या सुनकर उस वस्तु से भिन्न- किसी अन्य वस्तु को समझ लेना ‘विपर्यय’ वृत्ति है ।
जैसे रस्सी को सांप समझ लेना, सीपी में चांदी की भ्रांति हो जाना, मरुस्थल में जल की भ्रांति हो जाना, {मृग मरीचिका} आदि ।
यह वृत्ति जब भी योग की ओर ले जाती है तो विद्या तथा संसार की ओर ले जाती है तो अविद्या कहलाती है ।।
स्रोत– पतंजलि योग सूत्र
लेखन एवं प्रेषण–
पं. बलराम शरण शुक्ल
हरिद्वार