
सूत्र– ९
शब्दज्ञानानुपाती वस्तुशून्यो विकल्पः।
शब्दज्ञानानुपाती= जो ज्ञान शब्दजनित ज्ञान के साथ-साथ होने वाला है; {और} वस्तुशून्यः= जिसका विषय वास्तव में नहीं है, वह; विकल्पः= विकल्प है ।
अनुवाद– वस्तु के न रहते हुए भी शब्द ज्ञान मात्र से उत्पन्न चित्त वृत्ति को ‘विकल्प’ कहते हैं ।
व्याख्या– जब कोई वस्तु नहीं होती किंतु शब्द ज्ञान-मात्र से जो कोरी कल्पना की जाती है वह चित्त की ‘विकल्प’ वृति है । संसार के अधिकांश कार्यों के पहले कल्पना ही होती है ।
सभी वैज्ञानिक उपलब्धियाँ, कविता, संगीत, कलाएं आदि कल्पना की ही उपज हैं । यह कल्पना भी चित्त की वृत्ति है । इसका भी अच्छा और गलत उपयोग किया जा सकता है । यदि यह ईश्वर प्राप्ति में लगाई जाए तो ‘अक्लिष्ट’ है अन्यथा ‘क्लिष्ट’ कहलाती है । जैसे भगवान का स्वरूप किसी ने नहीं देखा किंतु साधक सुने सुनाये तथा ग्रन्थों को पढ़कर उसके स्वरूप की कल्पना कर उस पर ध्यान लगाता है जिससे उसे ध्यान का लाभ प्राप्त होता है । ऐसा विकल्प ‘अक्लिष्ट’ कहलाता है । संसार की भोगों की ओर लगने पर इसे क्लिष्ट कहते हैं ।।
स्रोत– पतंजलि योग सूत्र
लेखन एवं प्रेषण–
पं. बलराम शरण शुक्ल
हरिद्वार