
© आलेख: डॉ. अभिषेक कुमार
राजनीति, जो कभी, समाज के पिछड़े, वंचितों के उत्थान, बिना भेदभाव के समाज की सेवा, समेकित विकास और न्याय की धुरी हुआ करती थी, आज विभिन्न प्रकार के 'वादों' की गिरफ्त में आ चुकी है। हमने राजनीति में जातिवाद देखा है, जहां जातीय पहचान को वोट बैंक के रूप में इस्तेमाल किया जाता है; वर्गवाद देखा जहां अमीर-गरीब की खाई, अगड़ा पिछड़ा, हक अधिकार की लड़ाई को राजनीतिक हथियार बनाया जाता है; और आरोप-प्रत्यारोपवाद, जहां नेता एक-दूसरे पर कीचड़ उछालते रहते हैं। लेकिन इक्कीसवीं सदी के तीसरे दशक में एक नया और घृणित प्रवृत्ति उभरी है—गालीवाद। यह वह दौर है जब पक्ष और विपक्ष दोनों ही राजनीतिक बहस को व्यक्तिगत अपशब्दों, गालियों और अपमानजनक भाषा में बदल देते हैं। सोशल मीडिया से लेकर संसद तक, भाषा का स्तर इतना गिर चुका है कि राजनीति अब लोकतंत्र की रक्षा करने के बजाय समाज को विभाजित करने का माध्यम बन गई है।
आजादी के दीवानों, वीर सपूतों, स्वतंत्रता सेनानियों ने आजादी के 75 वर्षों के बाद राजनीति का स्तर इतना नीचे गिर जाएगा कि कोई किसी के मां को गाली दे रहा है तो कोई किसी के मां को विधवा, नचनिया कह रहा है..! माता चाहे किसी का हो वह सदैव आदरणीय, वंदनीय पूज्यनीय है। गाली-गलौज किसी भी दशा में शोभनीय नहीं है, चाहे वह कोई भी छोटा-बड़ा नेता या कार्यकर्ता कर रहा हो..! ऐसे गाली-गलौज करने वाले व्यक्तियों को पकड़ विधि सम्मत कार्यवाही करते हुए जेल भेजना चाहिए।
वर्तमान छल कपट युक्त राजनैतिक माहौल में यह भी ध्यान रखना चाहिए कि राजनीतिक और सामाजिक उन्माद फैलाने और अपने प्रति जनता जनार्दन के सहानुभूति लूटने तथा विपक्षी दल के बदनाम करने हेतु कोई दल अपने से विपक्षी दल में किसी व्यक्ति को भेज कर या उस दल के किसी नेता कार्यकर्ता को पैसे के दम पर खरीद कर उनके मंच से अपनी ही गाली दिलवा सकता है या अभद्र भाषा का प्रयोग करा सकता है कहीं ऐसा तो नहीं है .! कायदे से जांच पड़ताल कर गंभीर कार्यवाही करना चाहिए ताकि भविष्य में कोई ऐसी पुनरावृति न करे।
राजनीति पूर्ण रूप से झूठवाद, जुमलावाद, गुमराहवाद, लूटवाद, धोखावाद और हड़पवाद में तब्दील हो जाएगी, यदि समय रहते न रोका गया, तो न केवल चिंताजनक है बल्कि एक यथार्थवादी चेतावनी भी है। ऐसे में, सरकार चलाने के लिए एक नए विकल्प पर विचार करना अनिवार्य हो जाता है—संगणकतंत्र, अर्थात कंप्यूटर-आधारित शासन प्रणाली। विशेष रूप से सुपर क्वांटम कंप्यूटर और एआई (कृत्रिम बुद्धिमत्ता) युक्त मशीनें, जो मानवतावाद को स्थापित करने में सक्षम हैं। क्योंकि मानव नेता, जिनका जमीर गिरवी रखा हुआ है, अब इस जिम्मेदारी को निभा नहीं पा रहे। कारण कि अपनी कुर्सी पाने के लिए वे कुछ भी करने को तैयार हैं क्यों न बार बार दल बदलना पड़े, झूठ, जुमला का सहारा लेना पड़े और तो और सत्ताधारी दल से विचारधारा न भी मिल रही हो फिर भी शासन सत्ता कि मलाई चूसने के लिए साथ में मनमुटाव से ही हैं पर हैं। सत्ताधारी दलों के साथ केवल निजीगत लाभ और पद के लिए पार्टी प्रमुखों का दिन रात मिथ्या महिमामंडन करते फिरते रहते हैं ऐसे नेताओं से लगता है आपको की यह देश और समाज का कल्याण होने वाला है..? लोकतंत्र अब लूटतंत्र में तब्दील होती मालूम पड़ रही है। तमाम नेता और कार्यकर्ता अपने फायदे के अनुसार दल बदलते रहते हैं।
इस आलेख में हम इस विचार को विस्तार से समझेंगे, राजनीति के वर्तमान संकट का विश्लेषण करेंगे और सरकार चलाने का एक नया विकल्प संगणकतंत्र के रूप में एक क्रांतिकारी विकल्प की संभावनाओं पर भी चर्चा करेंगे।
राजनीति में 'वादों' का इतिहास और वर्तमान स्वरूप राजनीति का इतिहास 'वादों' से भरा पड़ा है। प्राचीन काल से ही, चाहे वह प्लेटो का 'रिपब्लिक' हो या माचीवेली का 'द प्रिंस', यथार्थवाद राजनीति को सत्ता प्राप्ति और नियंत्रण का माध्यम बन गया था। भारत में स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद, राजनीति ने आदर्शवाद से शुरुआत की—गांधीजी का अहिंसावाद और सत्याग्रह, पंडित नेहरू, लोहिया आदि नेताओं का समाजवाद। लेकिन धीरे-धीरे यह जातिवाद में फंस गई। 1980 के दशक में मंडल आयोग ने जातीय आरक्षण को राजनीतिक हथियार बना दिया, जिससे पार्टियां जातीय समीकरणों पर निर्भर हो गईं जो आज तक जारी है। प्रत्येक प्रमुख राजनैतिक दल किसी न किसी विशेष जाती से ही समर्थित और उस जाती वर्ग से वोट बैंक की आकांक्षा, उन्हें खुश करने और वोट साधने के तमाम हथकंडे पर केंद्रित है। कुछ पार्टियों ने हिन्दू-मुस्लिम अलगाव पैदा कर राजनीति में धर्मवाद को भी पनपाया और प्राथमिक स्तर पर सफल भी हुए। कुछ राजनैतिक दल और इनके संस्थापक आंबेडकरवाद का सहारा लेकर हिन्दू धर्म के पंडित आदि सामान्य वर्गों से नफरत फैला कर राजनीति की रोटी सेकना शुरू किए। जबकि असल में बाबा साहब आंबेडकर मानवतावाद के पुजारी थे। आगे चलकर राजनीति में वर्गवाद भी पनपा जो आज चरम सीमा पर है, कोई राजनैतिक दल अनुसूचित जनजाति के अपने आप को मसीहा बता रहा है तो कोई अनुचित जाती, तो कोई दलित वर्ग, तो कोई महादलित वर्ग, कोई अत्यंत पिछड़ा वर्ग, तो कोई पिछड़ा वर्ग, कोई सामान्य वर्ग और कोई व्यवसायी वर्ग का अपने आप को मसीहा बता रहा है। सब का एक ही आश्वासन है यदि हम शासन सत्ता में आए तो अपने वर्ग के साथ साथ सभी का विकास चांद, मंगल पर क्या दूसरे यूनिवर्स तक पहुंचा देंगे। यह बात अलग है कि शासन सत्ता कि मलाई में डूबने पर वह वचन की याद और फुर्सत कहा कि पूरा किया जाए। जनता जनार्दन तो महान और दाता है ही अगले बार फिर कोई जुमला दिखाकर वोट तो मिल ही जाएगा। कम्युनिस्ट विचारधारा के पार्टियां मजदूर-किसान के नाम पर सत्ता हासिल करती रहीं, लेकिन वास्तविक हक अधिकार और न्याय किसी ने नहीं दे पाई। बल्कि इसके आड़ में कई लोग राजनैतिक पद प्रतिष्ठा पाने में सफल हुए।
आरोप-प्रत्यारोपवाद तो राजनीति का अभिन्न अंग बन चुका है। चुनावी रैलियों में नेता एक-दूसरे पर बिना सबूत के ही भ्रष्टाचार, परिवारवाद या देशद्रोह के आरोप लगाते रहते हैं। लेकिन गालीवाद एक नया आयाम है जो हाल के वर्षों में पनपा है। 2020 के दशक में, विशेष रूप से कोविड-19 महामारी के बाद, सोशल मीडिया ने इसे खूब बढ़ावा दिया। उदाहरण के लिए, भारत में विपक्षी नेता सत्ताधारी पार्टी को ‘फासीवादी’ या ‘चोर’ कहते हैं, जबकि सत्ताधारी विपक्ष को ‘देशद्रोही’ या ‘टुकड़े-टुकड़े गैंग’ का नाम देते हैं। अमेरिका में डोनाल्ड ट्रंप के दौर में ‘फेक न्यूज’ और व्यक्तिगत अपशब्द राजनीतिक भाषा का हिस्सा बन गए। यूरोप में भी, ब्रेक्जिट और पॉपुलिस्ट नेताओं ने भाषा को विषाक्त बना दिया।
गालीवाद का उदय क्यों? इसका मुख्य कारण है ध्यान आकर्षित करना। पारंपरिक मुद्दे जैसे अर्थव्यवस्था, स्वास्थ्य या शिक्षा अब वोट नहीं दिला पाते, क्योंकि जनता निराश हो चुकी है, इन जुमला को सुन सुन कर इसलिए नेता भावनाओं को भड़काते हैं—धार्मिक, जातीय या व्यक्तिगत। सोशल मीडिया के तमाम प्लेटफार्म पर विवादास्पद सामग्री एक दूसरे के बीच आसानी से साझा हो जाते हैं तथा को प्रमोट करने के भी विकल्प वहां मौजूद है, जिससे समाज और राजनीत में गालीवाद फैलने लगा है। परिणामस्वरूप, राजनीति अब विचारधारा की अभिव्यक्ति से हटकर व्यक्तिगत हमलों पर केंद्रित हो गई है।
राजनीति अब जुमलावाद, झूठवाद, गुमराहवाद, लूटवाद और हड़पवाद में रूपांतरण हो गया है। इन सबके बीच यदि गालीवाद को नहीं रोका गया, तो राजनीति और समाजवाद की मर्यादा तार तार हो जाएगी।
राजनीति अब मुख्य रूप से इन पांच ‘वादों’ में बदल गई है।
झूठवाद: फेक न्यूज और मिसइनफॉर्मेशन का दौर। 2024 के चुनावों में, सोशल मीडिया पर डीपफेक वीडियो और झूठी खबरें फैलाई गईं। नेता वादे करते हैं जो कभी पूरे नहीं होते—जैसे ‘अच्छे दिन जरूर आयेंगे’, मुफ्त की रेवड़ी के घोषणा करते हैं—और जनता को झूठे आंकड़ों से गुमराह करते हैं।
जुमलावाद: चुनावी जनसभाओं में सुनियोजित तरीके से जनता जनार्दन के भीड़ इकट्ठा करो और लक्ष्यधर तरीके से, भावनात्मक तरीके से तथा शपथ संकल्प के सहारे वैसे भाषण देना जो बाद में मिथ्या साबित हो जाए वह जुमलावाद का नमूना है।
गुमराहवाद: जनता को गलत दिशा में ले जाना। पर्यावरण संकट, जलवायु परिवर्तन, समसामयिक जैसे मुद्दों पर ध्यान देने के बजाय, नेता धार्मिक या जातीय मुद्दों पर बहस कराते हैं। उदाहरणस्वरूप, भारत में किसान आंदोलन के दौरान, शासन सत्ता में बैठे कुछ नेता बिना कोई सबूत के ‘खालिस्तानी’ करार देकर गुमराह किया। वैश्विक स्तर पर, पॉपुलिस्ट नेता आप्रवासन को ‘खतरा’ बताकर जनता को भयभीत करते हैं।
लूटवाद: सत्ता का दुरुपयोग आर्थिक लाभ के लिए। भ्रष्टाचार के मामले अनगिनत हैं- तमाम हार्डवेयर घोटाले से लेकर सॉफ्टवेयर घोटाले तक का सफर, नेता सार्वजनिक, सरकारी संसाधनों को लूटते हैं, निजी लाभ हेतु कॉरपोरेट्स को फायदा पहुंचाते हैं। जनता के टैक्स से अर्जित रुपए अमीरों के लोन माफ कर रहा है। टैक्स के अपार संपति अनावश्यक निजी लाभ में खर्च हो रही हो तथा स्विश बैंक में संग्रह हो रहा है। तथा रोड पर रोज नए-नए टोल प्लाजाओं का निर्माण हो रहा है जहां पचास साठ किलोमीटर चलने पर भारी भरकम टोल टैक्स देना पड़ रहा हो यह लूटतंत्र का नमूना नहीं तो और क्या है..?
हड़पवाद: सत्ता हड़पने की प्रवृत्ति। अपने चाहते को सरकारी टेंडर प्रदान कर देना, सरकारी सार्वजनिक परिसंपत्तियों को औने पौने दाम में बेच देना, चुनावी इलेक्टोरल फंडिंग, मीडिया कंट्रोल और जांच संस्थाओं/एजेंसियों का दुरुपयोग तथा न्यायपालिका को सत्ता के दम पर प्रभावित किया जाना आदि, आदि।
ये प्रवृत्तियां समाज को खोखला कर रही हैं। गरीबी, असमानता बढ़ रही है; विश्वास का संकट है। मानव नेता, जिनका जमीर ‘गिरवी’ है—चुनावी फंडिंग, लॉबिंग या व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा से—मानवतावाद स्थापित नहीं कर सकते। मानवतावाद अर्थात समानता, न्याय, करुणा पर आधारित समाज। लेकिन मनुष्य की कमजोरियां—लालच, पक्षपात—इसे असंभव बनाती हैं।
संगणकतंत्र: एक नया विकल्प
ऐसे में, संगणकतंत्र—कंप्यूटर और एआई आधारित शासन—एक क्रांतिकारी विचार है। सुपर क्वांटम कंप्यूटर, जो पारंपरिक कंप्यूटरों से लाखों गुना तेज हैं, और एआई युक्त मशीनें, जो डेटा विश्लेषण, निर्णय लेने में सक्षम हैं, सरकार चला सकती हैं। क्वांटम कंप्यूटिंग क्वबिट्स पर आधारित है, जो एक साथ कई संभावनाओं को प्रोसेस करती है, जबकि क्लासिकल कंप्यूटिंग बिट्स पर। आईबीएम, गूगल जैसे कंपनियां क्वांटम सुप्रीमेसी हासिल कर चुकी हैं।
संगणकतंत्र में, एआई नीतियां बनाएगी, संसाधन वितरित करेगी, न्याय देगी। उदाहरण: सिंगापुर में एआई ट्रैफिक मैनेजमेंट में इस्तेमाल होता है; एस्टोनिया में ई-गवर्नेंस। लेकिन पूर्ण संगणकतंत्र में, एआई प्रधान मंत्री, राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री, विभागीय मंत्री, सभी कार्यालयों के प्रमुख के समतुल्य की भूमिका निभाएगी।
संगणकतंत्र के लाभ और मानवतावाद की स्थापना
संगणकतंत्र के प्रमुख लाभ:
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- निष्पक्षता: AI रोबोटिक मशीन में पक्षपात नहीं संभव। यह जाति, वर्ग, धर्म के दूषित भावना से मुक्त है। उदाहरण: AI जज सिस्टम, जैसे अमेरिका में रिस्क असेसमेंट टूल, जो अपराधी की सजा तय करता है बिना पूर्वाग्रह के।
- दक्षता: सुपर क्वांटम AI सेकंडों में जटिल समस्याएं हल करेगी—जैसे शासन प्रशासन व्यवस्था, जलवायु मॉडलिंग या अर्थव्यवस्था प्रबंधन। मानव नेता इन सभी में महीनों वर्षों लगाते हैं।
- पारदर्शिता: सभी निर्णय डेटा-आधारित, ऑडिटेबल। ब्लॉकचेन के साथ, कोई भ्रष्टाचार नहीं।
- मानवतावाद: AI को प्रोग्राम किया जा सकता है कि वह उपयोगिता मैक्सिमाइजेशन पर फोकस करे—सभी के लिए एक मापदंड पर स्वास्थ्य, शिक्षा, रोजगार मुहैया कराना। जैसे, यूनिवर्सल बेसिक इनकम का एआई-आधारित वितरण।
- पर्यावरण संरक्षण: एआई ग्लोबल वार्मिंग को रोकने के लिए ऑप्टिमाइज्ड नीतियां बनाएगी, मानव लालच से मुक्त।
एआई मानवतावाद स्थापित कर सकती है क्योंकि ये मशीनों का ज़मीर गिरवी नहीं हो सकता है। मनुष्य भावनाओं से प्रभावित होते हैं—क्रोध, लालच—लेकिन एआई लॉजिक पर चलती है। फिलॉसफर निक बोस्ट्रॉम की किताब ‘सुपरइंटेलिजेंस’ में कहा गया है कि एआई मानवता को बेहतर बना सकती है यदि सही ढंग से डिजाइन की जाए तो..! मानव नेतागण के जो वेतन भत्ता, सुरक्षा, सुविधाएं हैं और दिन प्रतिदिन जितना बढ़ रही उतना ही देश के आमजनों में गरीबी लाचारी बढ़ रही है। ये मशीनें मानव नेताओं के खर्चा के सापेक्ष सस्ती है।
चुनौतियां और समाधान
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संगणकतंत्र में चुनौतियों भी है जिसे इनकार नहीं किया जा सकता।
- एआई बायस: यदि ट्रेनिंग डेटा पक्षपाती हो सकती है, तो एआई भी पक्षपाती निर्णय ले सकता है। समाधान: डाइवर्स डेटा और एथिकल एआई फ्रेमवर्क।
- नौकरियां: एआई कई जॉब्स ले लेगी परंतु नए रोजगार सृजन भी करेगी। समाधान: रीस्किलिंग और यूनिवर्सल इनकम।
- सुरक्षा: हैकिंग का खतरा। क्वांटम क्रिप्टोग्राफी से सुरक्षित।
- मानवीय स्पर्श की कमी: भावनात्मक निर्णयों में एआई कमजोर। समाधान: हाइब्रिड सिस्टम—एआई निर्णय, मानव ओवरसाइट।
- नैतिक मुद्दे: एआई को ‘मानवतावाद’ कैसे सिखाएं? यूएन के एआई एथिक्स गाइडलाइंस का पालन।
आधुनिक विचारक AI तथा रोबोटेकी मशीन के ज्ञाता एलोन मस्क चेताते हैं कि एआई को नियंत्रित रखें और यदि सही ढंग से लागू किया जाए, तो यह राजनीति तथा समाज के संकट का असल समाधान है।
भविष्य की संभावनाएं
2030 तक, क्वांटम AI,विकसित देशों में शासन का हिस्सा बनेगी। भारत जैसे देशों में, जहां राजनीति विभाजित है, संगणकतंत्र एकीकरण लाएगा ऐसा अनुमान है। कल्पना कीजिए: एआई चुनाव कराती है, वोटर आईडी से लेकर नीति निर्माण तक सब डिजिटल। कोई गालीवाद नहीं, केवल डेटा-आधारित बहस।
अतः राजनीति का वर्तमान स्वरूप— परिवारवाद, जातिवाद, वर्गवाद, जुमलावाद, झूठवाद, गुमराहवाद, लूटवाद, धोखावाद, हड़पवाद से लेकर गालीवाद तक—समाज को नष्ट कर रहा है। झूठवाद, जुमलावाद, गुमराहवाद, लूटवाद और हड़पवाद का खतरा मंडरा रहा है। ऐसे में, संगणकतंत्र एक आवश्यक विकल्प है। सुपर क्वांटम कंप्यूटर और एआई मानवतावाद स्थापित करेंगे, क्योंकि वे पक्षपात से मुक्त हैं। हमें अब विचार करना चाहिए, प्रयोग करना चाहिए। क्योंकि गिरवी जमीर वाले मानव नेता असफल हो चुके हैं; मशीनें ही भविष्य हैं। यह परिवर्तन क्रांति लाएगा, एक न्यायपूर्ण विश्व की नींव रखेगा।
डॉ. अभिषेक कुमार
साहित्यकार व विचारक
मुख्य प्रबंध निदेशक
दिव्य प्रेरक कहानियाँ मानवता अनुसंधान केंद्र