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तक़दीर का परिंदा

तक़दीर का परिंदा कहाँ रहता है, किसे पता,
चाल में, ढाल में, राह में,
सच में, झूठ में—
या फिर बिकता है कहीं किसी बाज़ार में।

रंग बर्बाद हैं सारे,
रूप भी बेकार है सारा,
बिन उसके—
कहाँ चमकता है किस्मत का सितारा।

किस डाल पर जा बैठा है
मेरे नसीब को तराशने वाला,
वो शायद उसी का है—
जहाँ पहले से ही है
बहुत सारा।

और मैं अब भी
खाली हथेलियों में
आसमान टटोलता हूँ,
कि कोई टुकड़ा मेरे हिस्से भी
झर पड़े—एक उजला सितारा।
आर एस लॉस्टम

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