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श्रीकृष्ण शरणम् मम्

।। महाभारत में उद्यम,परिश्रमः पर सूक्ति ।।

परिश्रम सर्वे हि स्वं समुत्थानुपजीवंति जंतव: ।

सभी प्राणी अपने उद्यम के आश्रय से ही, जीवन निर्वाह करते हैं ।।

उत्थानवीरान् वाग्वीरा रमयंत उपासते ।

वाक् शूर {चाटुकार} उद्यमी जनों की चाटुकारिता करते हुए उनकी उपासना करते हैं ।।

उद्यमो ह्मेव पौरुषम् ।

उद्यम ही पौरुषता है ।।

अनिर्वेद: श्रियो मूलं लाभस्य च शुभस्य च ।

उत्साह ही- श्री, लाभ और कल्याण {मोक्ष} का मूल है ।।

व्यायामेन परीप्सस्व जीवितम् ।

अपनी जीविका अपने परिश्रम से चलाओ ।।

पुरुषार्थमभिप्रेतं समाहर्तुं मर्हसि ।

संसार में अभीष्ट {जो चाहिए ऐसा} पुरुषार्थ प्रकट करना चाहिये ।।

धिक् पौरुषमनर्थकम् ।

निष्फल परिश्रम को धिक्कार है ।।
{इसका अर्थ है, मनोयोग की कमी}

प्राज्ञा: पुरुषकारेषु वर्तते दाक्ष्यमाश्रिता: ।

विद्वान् कुशलता का आश्रय लेकर, परिश्रम में ही लगे रहते हैं ।।

पुरुषकारेण विना दैवं न सिध्यति ।

परिश्रम के बिना, जो भाग्य में होता है – वह भी नहीं मिलता ।।

सर्वं पुरुषकारेण मानुष्याद् देवतां गत:।

सभी देवता प्रथम, मनुष्य जन्म में परिश्रम करके ही देवता बने हैं ।।

हरिकृपा ।।
मंगल कामना ।।

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