
।। महाभारत में उद्यम,परिश्रमः पर सूक्ति ।।
परिश्रम सर्वे हि स्वं समुत्थानुपजीवंति जंतव: ।
सभी प्राणी अपने उद्यम के आश्रय से ही, जीवन निर्वाह करते हैं ।।
उत्थानवीरान् वाग्वीरा रमयंत उपासते ।
वाक् शूर {चाटुकार} उद्यमी जनों की चाटुकारिता करते हुए उनकी उपासना करते हैं ।।
उद्यमो ह्मेव पौरुषम् ।
उद्यम ही पौरुषता है ।।
अनिर्वेद: श्रियो मूलं लाभस्य च शुभस्य च ।
उत्साह ही- श्री, लाभ और कल्याण {मोक्ष} का मूल है ।।
व्यायामेन परीप्सस्व जीवितम् ।
अपनी जीविका अपने परिश्रम से चलाओ ।।
पुरुषार्थमभिप्रेतं समाहर्तुं मर्हसि ।
संसार में अभीष्ट {जो चाहिए ऐसा} पुरुषार्थ प्रकट करना चाहिये ।।
धिक् पौरुषमनर्थकम् ।
निष्फल परिश्रम को धिक्कार है ।।
{इसका अर्थ है, मनोयोग की कमी}
प्राज्ञा: पुरुषकारेषु वर्तते दाक्ष्यमाश्रिता: ।
विद्वान् कुशलता का आश्रय लेकर, परिश्रम में ही लगे रहते हैं ।।
पुरुषकारेण विना दैवं न सिध्यति ।
परिश्रम के बिना, जो भाग्य में होता है – वह भी नहीं मिलता ।।
सर्वं पुरुषकारेण मानुष्याद् देवतां गत:।
सभी देवता प्रथम, मनुष्य जन्म में परिश्रम करके ही देवता बने हैं ।।
हरिकृपा ।।
मंगल कामना ।।