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मनुष्यता की तलाश में- ‘ऐसे-ऐसे लोग’

  • रवींद्र कात्यायन
    श्रीमद्भगवद्गीता में कहा गया है- ‘कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन’। यह है निष्काम कर्म का उपदेश जो गीता हमें सिखाती है। मनुष्य अपने कर्मों का फल प्राप्त ही करता है, पर उसकी इच्छा न करने वाला ही निष्काम योगी की तरह जाना जाता है। भारतीय परंपरा में कहा गया है कि मनुष्य अपने पूर्व जन्मों का फल इस जन्म में भुगतता है, तो उसके इस जन्म के कर्म फल भी अगले जन्म में उसे प्राप्त होंगे, पर उन पर मनुष्य का वश नहीं। अतः इस जन्म में मनुष्य योनि में मिले जन्म का सार्थक उपयोग करना ही श्रेष्ठ है, श्रेयस्कर है और सत्कर्म के द्वारा ही यह संभव है।
    मेरे समक्ष है- इंद्रजीत शर्मा के संस्मरणों का संग्रह- ‘ऐसे ऐसे लोग’, जिसे बाली, इंडोनेशिया से हो ची मिन्ह, वियतनाम की हवाई यात्रा में पूरा पढ़ गया और जिस पर तत्काल लिखे बिना न रहा गया। यह पुस्तक सिर्फ संस्मरणों का एक संग्रह नहीं बल्कि मनुष्यता का एक अनूठा पाठ है, सदाशयता का आख्यान है, मानव चरित्र के दुर्गम, जटिल, अविश्वसनीय अनुभवों का वर्णन है और निष्काम कर्म की महत्ता का ऐसा अध्याय है, जिसे पढ़े, समझे, गुने जाने की आज सबसे अधिक आवश्यकता है।
    यूं तो इस पुस्तक में 12 अध्याय हैं, जो मनुष्य के चरित्र की जटिलताओं और उससे उपजे परिणाम या मनुष्य होने की सीमाओं का वर्णन करते हैं, परंतु सभी के मूल में मानवीय से अमानवीय, अच्छे से बुरे, सकारात्मक से नकारात्मक होने की एक गहरी चिंता, गहरा दुख और अवसाद है। लेखक कहीं भी अपने आर्थिक नुकसान और भौतिक हानि के प्रति चिंतित नहीं है, बल्कि उसके पीछे के अविश्वास, धोखे, षड्यंत्र को लेकर निराश है, जो एक मनुष्य को झूठा, नीच, एवं अधोगामी बना देते हैं।
    पुस्तक के 12 अध्याय लेखक के जीवन के विभिन्न काल खंडों में हुए अनुभवों का आख्यान हैं। इनमें उसे चाहे धोखा मिला हो या आर्थिक नुकसान, उसने कभी भी अपनी उदारता या अभावग्रस्त लोगों की सहायता का व्रत नहीं छोड़ा। इस दृढ़ इच्छा शक्ति के पीछे उसके माता-पिता की शिक्षा, मानव मात्र के सुख-दुख में साथ देने की उसकी आदत तथा याचक की मुद्रा में सामने आए हुए व्यक्ति की भावना का सम्मान करना शामिल है। यह अध्याय मानव मन की इन्हीं विभिन्न स्थितियों और उनकी क्रिया प्रतिक्रियाओं को व्यक्त करते हैं।
    लेखक ने लिखा है कि- ‘इस पुस्तक में लिखी हुई घटनाएं मेरे सामाजिक जीवन की पीड़ादायक क्षणों की मौन साक्षी हैं। इन पृष्ठों में वर्णित घटनाओं में मेरे वर्षों, महीनों, सप्ताहों व दिनों की संचित पीड़ा एवं उदासी की लंबी दास्तान है। कभी किसी अनुभव ने महीनों की नींद छीनी, तो किसी ने लंबे अंतराल तक मेरे जीवन को असहज बना दिया, कई घटनाओं ने तो मेरे आत्मविश्वास की जड़ें हिला दीं।‘ (पृ.13)
    लेखक क्या कहना चाहता है? इस पुस्तक में स्पष्ट शब्दों में लिखा है कि- ‘न अहंकार प्रदर्शन, न आत्मश्लाघा की तृप्ति, न कोई स्वांतः सुखाय की बात। बस इनको पढ़कर पाठक की चेतना का स्तर ऊपर उठे, एक समरस समाज का निर्माण हो और वह शाश्वत-पथ पर अग्रसर हो।‘ यह पुस्तक हमें अनेक मानवीय मूल्यों के साथ-साथ जीने की कला भी सिखाती है, उसके साथ ही अपने माता-पिता एवं पूर्वजों के प्रति सर्वोच्च आदर प्रदर्शित करना भी सिखाती है। यदि हम अपने माता-पिता की इच्छा का सर्वोच्च सम्मान करें तो सफलता सुनिश्चित है। एक अच्छे एवं सच्चे मनुष्य के निर्माण में माता-पिता का सम्मान तथा उनकी इच्छा का सर्वाधिक महत्व है। लेखक ने अपने माता-पिता द्वारा स्थापित मूल्य, परोपकार की भावना, उनकी इच्छा तथा उनके आशीर्वाद को सबसे अधिक महत्व दिया है। नीच से नीच व्यक्ति को भी अंत तक मौका दिया है, कि सच्चाई के मार्ग पर चलें, परंतु बहुत कम बार ऐसा हुआ है कि उसके संबंध अच्छे बने रहे हों और समस्या का समाधान भी हो गया हो।
    चाहे भारत हो या यूरोप अथवा अमेरिका, मनुष्य के स्वार्थ की, षडयंत्रों की कहानियाँ हर जगह एक जैसी हैं। आज के उपभोक्तावादी संसार में मनुष्य की आर्थिक लालसाओं की अनंत चाहत ने उसे न सिर्फ बेईमान बनाया है, बल्कि अपने पारिवारिक संबंधों को भी निर्लज्ज कर दिया है। रुपयों के लिए दूसरे को धोखा देने वाले हों या अपनों को, ये संस्मरण हमें एक सीख देते हैं- आचरण के आदर्श का पालन करने की, अपने संबंधों के प्रति ईमानदार रहने की तथा मानवीय संबंधों में आस्था बनाए रखने की।
    या तो मनुष्य स्वयं के अनुभवों से सीखता है या दूसरों के अनुभवों से। लेखक के जीवन का मूल उद्देश्य है- अपने माता-पिता द्वारा सिखाए गए सेवा धर्म का निरंतर पालन करना, मानवीय संबंधों को रुपए पैसों के गणित से न तोलना तथा जरूरतमंदों की सहायता करने में कभी भी न चूकना। रुपए पैसे का मूल्य मनुष्यता की रक्षा में सहायक हो, तभी सार्थक है। धन पशु बनकर जीने का कोई अर्थ नहीं। मानव जीवन सत्कर्मों के लिए मिला है, अतः अच्छे कर्मों को कभी छोड़ना नहीं है।
    इस पुस्तक में जो संस्मरण हैं, वे जीवन के ऐसे महत्वपूर्ण पाठ हैं, जिन्हें हर व्यक्ति को पढ़ना चाहिए। चालीस- पचास वर्षों के अंतराल में सिमटे हुए जीवन के ये अनुभव, मनुष्य की अनंत इच्छाओं, भौतिकता की अंधी दौड़ तथा उसकी अदम्य आर्थिक लालसा को अभिव्यक्त करते हैं। इसके साथ-साथ निष्काम होकर मनुष्य के पक्ष में खड़े होने की वकालत भी करते हैं। अनगिनत व्यक्तियों से धोखा खाकर लेखक आहत होता है, अवसाद से भर जाता है, फिर भी वह आगे किसी की सहायता न करने की कोई इच्छा प्रकट नहीं करता है। उसके लिए धन-संपत्ति, रुपए-पैसे का महत्व बहुत कम है। महत्व है तो अपने माता-पिता की इच्छा, दुखी पीड़ित की सहायता करने का तथा मानवीय संबंधों की स्थापना करने का।
    यह पुस्तक हमें एक कर्मयोगी की भांति जीने को प्रेरित करती है, इसके साथ जीवन जीने का, इसकी सार्थकता का मार्ग भी बताती है। यदि आप किसी के द्वारा किए गए कृतज्ञता पूर्ण काम के प्रति कृतज्ञ नहीं हैं, तो आप अपने जीवन के प्रति भी कृतज्ञ नहीं हैं। किसी के द्वारा किए गए एहसान या सहायता के लिए कृतज्ञ होना मनुष्य होने की पहली शर्त है। लालच उसे कहीं का नहीं छोड़ता। एक जगह लेखक ने लिखा है- ‘गुरु ग्रंथ साहिब में भी कृतघ्न व्यक्ति का कभी भला नहीं हो सकता। (पृ. 137)
    वर्तमान मीडिया तथा आभासी पटल का हमारी युवा पीढ़ी के जीवन में इतना दखल हो गया है कि हमारा सामाजिक चरित्र ही कुंठित हो गया है। समय, समाज केवल तमाशा देख सकते हैं। इसका कोई सार्थक हल दिखाई नहीं दे रहा है। सतयुग से लेकर आज तक हर युग में मनुष्य के चरित्र को सर्वाधिक महत्व दिया गया है। महापुरुषों, संतों, प्रसिद्ध लेखकों आदि की शिक्षाओं के द्वारा युवा पीढ़ी को बचपन से ही सुसंस्कृत किया जाता रहा है, परंतु आज की स्थिति ऐसी नहीं है। आज का बच्चा पैदा होते ही मोबाइल के नशे का शिकार हो जाता है। लेखक की चिंता है कि किस तरह इस समस्या का समाधान किया जाए?
    क्या केवल अपने जीवन का कर्तव्य पालन ही आवश्यक है, दूसरे व्यक्ति का क्या? यदि दूसरा व्यक्ति गलत मार्ग पर चल रहा हो तो आप उसे किस तरह सुधार सकते हैं? और क्या वह आपके कहने से मान जाएगा? मनुष्य ने आज बाजार की शक्ति से संचालित होकर अपने जीवन को एक ऐसे समुद्र में बहने को छोड़ दिया है, जहां कोई उसे समझाने वाला नहीं है। अत्यधिक मुनाफा कमाना तथा सामने वाले का गला काट कर आगे बढ़ना आज कंपनी स्ट्रेटजी, मार्केट एथिक्स, सोशल एथिक्स के नाम से अपनी षड्यंत्रकारी रणनीतियों को सही ठहराना है। आज के षडयंत्रों को लेखक महामारक मंत्र कहता है और उसे परमाणु तकनीक एवं हाइड्रोजन तकनीक से अधिक शक्तिशाली मानता है, जिसका कोई समाधान हमारे पास नहीं है।
    यह पुस्तक हमें व्यक्तिगत रूप से तथा समाजगत रूप से आकर्षित करती है कि हम समाज के लिए अपनी जिम्मेदारी का पालन करें। युवा पीढ़ी के चरित्र को आकार देने के लिए उसे सही दिशा दें और इसे सामाजिक दायित्व की तरह निभाएं। कहा गया है कि- ‘यं यं चिंतयते कामं तं तं प्राप्नोति निश्चितम्’ (अर्थात् जिस जिसकी कामना की जाए वह निश्चित प्राप्त होता है।)
    इस पुस्तक की भूमिका लिखी है- मॉरीशस के प्रसिद्ध लेखक रामदेव धुरंधर और मोहनलाल बृजमोहन ने तथा इसका ब्लर्व लिखा है- समाजसेवी बी. एल. गौड़ ने। लेखक युवा पीढ़ी से कहना चाहता है कि जीवन की सफलता का मूल मंत्र यही है कि अपने आचरण को सुधारा जाए, कर्तव्यों का निर्वहन किया जाए, तभी एक सुखद भविष्य का निर्माण हो सकता है। वेदों में लिखा है- ‘आचारहीनं न पुनन्ति वेद:।‘ अर्थात् आचार-विचार से हीन व्यक्ति की सहायता वेद का ज्ञान भी नहीं कर सकता।
    संपर्क-
    अध्यक्ष, हिन्दी विभाग,
    मणिबेन नानावटी महिला महाविद्यालय,
    विले पार्ले (प.), मुंबई-400056.
    ईमेल- intcinecon@gmail.com

पुस्तक परिचय-
पुस्तक – ऐसे-ऐसे लोग (संस्मरण संग्रह)
लेखक- डॉ. इंद्रजीत शर्मा
प्रकाशक- आईसेक्ट पब्लिकेशन, भोपाल
पृष्ठ संख्या- 138
प्रकाशन वर्ष- 2024

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