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समाधि पाद


सूत्र–१२ अभ्यासवैराग्याभ्यां तन्निरोधः ।
तनन्निरोधः= उन {चित्तवृत्तियों} का निरोध; अभ्यासवैराग्याभ्यां= अभ्यास और वैराग्य से होता है ।
अनुवाद– उन {चित्तवृत्तियों} का निरोध ‘अभ्यास’ और ‘वैराग्य’ से होता है ।
व्याख्या– महर्षि पतंजलि ने इस पद के दूसरे सूत्र में चित्त की वृत्तियों के निरोध को ही ‘योग’ कहा है । ईश्वर अथवा आत्मा कोई उपलब्ध होने वाली वस्तु नहीं है । वह तो नित्य उपलब्ध है ही । जिस प्रकार समुद्र में लहरों के कारण उसमें पड़ा चंद्रमा का बिम्ब दिखाई नहीं देता, जिस प्रकार बादलों के आवरण से आकाश दिखाई नहीं देता, उसी प्रकार इस चित्त में नित्य उठ रही तरंगों के कारण उस पर स्थित आत्मा दिखाई नहीं देती यह चित्त की तरंगे उनकी वृत्तियाँ ही हैं जो पूर्व जन्मों में किए गए कर्मों से निर्मित संस्कारों के कारण सदा संसार के भोगों की ओर प्रवृत्त होती हैं ।
योग शास्त्र में इसी को ‘अविद्या’ कहा है ।
यदि इन प्रवृत्तियों का योग साधनों द्वारा निरोध कर दिया जाए जिससे यह संसार के भोगों की ओर न दौड़े तथा बिल्कुल शांत हो जाए तो साधक को आत्मा के स्वरूप का ज्ञान हो सकता है । आत्मज्ञान होने पर ही साधक को संसार से पूर्ण वैराग्य होता है तथा वह स्वयं दृष्टा, साक्षी बन जाता है । यही ज्ञान है तथा यही मुक्ति है ।
किंतु अनेक जन्मों के संस्कारों के कारण यह वृत्तियाँ इतनी दृढ़ हो गई है कि इन्हें रोकना संभव नहीं तो कठिन अवश्य है ।
महर्षि पतंजलि इनकी निरोध के दो उपाय बदलाते हैं ‘अभ्यास’ और ‘वैराग्य’
विषयों के प्रति जो आसक्ति है उसका सर्वथा त्यागी ‘वैराग्य’ है । घर छोड़ कर जंगल जाना भगवा पहनना शरीर पर राख लपेटना नग्न रहना आदि वैराग्य नहीं है बल्कि सांसारिक विषयों के प्रति जो वासना है आसक्ति है लगाव है इनका त्याग ही वैराग्य है ।
दूसरे शब्दों में वासना ही संसार है एवं उसका त्याग ही मुक्ति है यह सांसारिक विषय ही दुख के कारण हैं तथा अपने स्वरूप {आत्मा} में स्थित हो जाना ही परमानंद की स्थिति है । इसलिए पतंजलि वैराग्य की बात कहते हैं । जो विषयों के प्रति आसक्ति का त्याग किए बिना योगाभ्यास करते हैं यह पथभ्रष्ट ही होते हैं तथा पाखंडी हो जाते हैं ।
इसलिए वैराग्य स्वरूप होकर निरंतर मन की प्रवृत्तियों को रोकने का अभ्यास करने से निश्चित ही साधक को आत्मज्ञान का सुख मिलता है ।
भगवान कृष्ण ने गीता में कहा है– हे महाबाहो !! निस्संदेह मन चंचल और कठिनता से वस में होने वाला है किंतु हे कौन्तेय !! अभ्यास और वैराग्य से यह वश में होता है । {गीता ६।२५} कर्म छोड़ना वैराग्य नहीं है आसक्ति छोड़ना ही वैराग्य है ।।
स्रोत– पतंजलि योग सूत्र
लेख व प्रेषण–
पं. बलराम शरण शुक्ल हरिद्वार

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