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“हिंदी द्वारा सारे भारत को एक सूत्र में पिरोया जा सकता है।”
(स्वामी दयानंद सरस्वती जी)

स्वामी दयानंद सरस्वती जी (1824–1883) भारतीय समाज के महान सुधारक, वेदज्ञ और राष्ट्रीय चेतना के जागरक थे। वे केवल धर्मशास्त्रों के विद्वान ही नहीं थे, बल्कि समाज के हर तबके के लिए प्रेरणास्रोत भी थे। उन्होंने अपने जीवन को सत्य, धर्म और सामाजिक उत्थान के लिए समर्पित किया। उनका दृष्टिकोण केवल धार्मिक ही नहीं, बल्कि सामाजिक और राष्ट्रीय था। वे भारतीय समाज में व्याप्त अंधविश्वास, रूढ़िवाद, कुरीतियों और कट्टरता के विरुद्ध एक लगातार जागरूकता फैलाने वाले क्रांतिकारी नेता थे। समाज के हर वर्ग तक उन्होंने शिक्षा, धर्म और नैतिकता का संदेश पहुँचाया। स्वामी दयानंद सरस्वती जी का मानना था कि यदि राष्ट्र में स्थायी एकता और प्रगति चाहिए, तो इसके लिए भाषाई और सांस्कृतिक एकता का होना अत्यंत आवश्यक है। इसी दृष्टि से उन्होंने कहा — “हिंदी द्वारा सारे भारत को एक सूत्र में पिरोया जा सकता है।”

भारत विविधताओं का अद्भुत देश है। यहाँ हर प्रांत की अपनी भाषा, बोली, परंपरा और सांस्कृतिक धारा है। हिमालय की ऊँचाइयों से लेकर दक्षिण के समुद्र तटों तक, पूर्व के घाटों से लेकर पश्चिम के रेगिस्तानों तक, भारत अपनी बहुभाषिक और सांस्कृतिक विविधताओं के लिए प्रसिद्ध है। प्रत्येक प्रांत की अलग भाषा और बोली वहां की सांस्कृतिक पहचान को व्यक्त करती है। यह बहुभाषिकता भारतीय समाज की शक्ति भी है, लेकिन इसके साथ ही यह चुनौती भी प्रस्तुत करती है। जब इतनी विविधताएँ हों, तो एक राष्ट्र के रूप में सामाजिक और राष्ट्रीय एकता बनाए रखना कठिन हो जाता है।

स्वामी दयानंद सरस्वती जी ने देखा कि भाषा केवल संचार का साधन नहीं है। यह वह माध्यम हो सकती है, जो लोगों के बीच आपसी समझ, भाईचारे और सहयोग की भावना को स्थापित करे। यदि समाज एक सामान्य भाषा को अपनाए, तो विचारों और अनुभवों का आदान-प्रदान सहज और स्पष्ट होता है। इसी विचारधारा के तहत उन्होंने हिंदी को राष्ट्रीय एकता का आधार बनाने पर जोर दिया। उन्होंने मान्यता दी कि हिंदी सरल, स्पष्ट और सहज समझ वाली भाषा है, जिसे देश के सभी प्रांतों और वर्गों के लोग आसानी से सीख सकते हैं और अपना सकते हैं।

हिंदी न केवल संवाद का माध्यम है, बल्कि यह हमारी सांस्कृतिक और धार्मिक चेतना का वाहक भी है। हमारे प्राचीन ग्रंथ, साहित्यिक कृतियाँ, गीत, कविता, गद्य, नाटक और शास्त्रीय रचनाएँ हिंदी भाषा के माध्यम से ही संरक्षित और पहुँच योग्य हैं। ये सभी हमारे इतिहास, संस्कृति और जीवन मूल्यों का दर्पण हैं। यदि प्रत्येक भारतीय इन मूल्यों से जुड़ता है और हिंदी को अपनाता है, तो यह न केवल सामाजिक एकता को बल देगा, बल्कि राष्ट्रीय चेतना को भी प्रबल बनाएगा। भाषा के माध्यम से सांस्कृतिक ज्ञान, आध्यात्मिक मूल्य और सामाजिक नैतिकता का प्रसार भी संभव होता है।

स्वामी दयानंद सरस्वती जी ने यह भी प्रतिपादित किया कि हिंदी केवल उत्तर भारत की भाषा नहीं, बल्कि यह पूरे देश के लोगों के लिए एक साझा भाषा बन सकती है। जब विभिन्न प्रांतों के लोग एक ही भाषा के माध्यम से संवाद करते हैं, तो आपसी समझ बढ़ती है। विचारों का आदान-प्रदान सहज होता है और सांस्कृतिक अंतर कम होने लगते हैं। यह सामाजिक भाईचारे और राष्ट्रीय एकता की नींव को मजबूत करता है। हिंदी भाषा के माध्यम से ही प्रत्येक भारतीय अपनी जड़ों से जुड़े रहते हुए आधुनिकता को भी अपनाने में सक्षम हो सकता है।

हिंदी के महत्व को केवल भाषाई सीमा तक सीमित नहीं किया जा सकता। यह राष्ट्र की आत्मा और राष्ट्रीय चेतना का प्रतीक भी है। हमारे धार्मिक, ऐतिहासिक और सामाजिक मूल्य हिंदी में संरक्षित हैं। हिंदी साहित्य, चाहे वह पुराणिक ग्रंथ हों, कविताएँ हों या लोककथाएँ, सभी भारतीय समाज की धरोहर हैं। ये ग्रंथ न केवल ज्ञान और शिक्षा का स्रोत हैं, बल्कि देश की संस्कृति और जीवन शैली का दर्पण भी हैं। इसलिए स्वामी दयानंद सरस्वती जी ने देखा कि हिंदी के प्रचार और प्रसार से ही समाज में नैतिकता, संस्कृति और भाईचारे की भावना बनी रह सकती है।

आज जब भारत वैश्विक मंच पर अपनी पहचान बना रहा है, तब हिंदी का महत्व और भी बढ़ गया है। विश्व स्तर पर जब लोग भारत की संस्कृति, उसकी परंपराएँ और उसका साहित्य समझना चाहते हैं, तब हिंदी भाषा ही एक सहज और प्रभावशाली माध्यम बनती है। यह भाषा सभी राज्यों और भाषाओं के लोगों को एक साझा मंच प्रदान करती है। हिंदी के माध्यम से सभी भारतीय अपने विचारों, अनुभवों और भावनाओं को साझा कर सकते हैं। इस साझा संवाद से आपसी समझ बढ़ती है और सामाजिक भाईचारा प्रबल होता है।

स्वामी दयानंद सरस्वती जी का दृष्टिकोण आज भी प्रासंगिक है। उनके समय में भारत के सामाजिक और भाषाई परिदृश्य के दृष्टिगत यह आवश्यक था कि लोग एक साझा भाषा के माध्यम से एकजुट हों। आज भी जब हम उनकी शिक्षाओं और विचारों पर विचार करते हैं, तब यह स्पष्ट होता है कि हिंदी को अपनाना केवल भाषाई या सांस्कृतिक कार्य नहीं, बल्कि यह राष्ट्रीय जिम्मेदारी भी है। भाषा के माध्यम से स्थायी एकता, भाईचारे और समाज में नैतिकता की भावना विकसित की जा सकती है।

अतः स्पष्ट है कि “हिंदी द्वारा सारे भारत को एक सूत्र में पिरोया जा सकता है।” यह कथन केवल भाषा की उपयोगिता को नहीं दर्शाता, बल्कि यह एक राष्ट्रीय और सांस्कृतिक दर्शन है। स्वामी दयानंद सरस्वती जी ने हमें यह संदेश दिया कि राष्ट्र की स्थायी एकता, सांस्कृतिक संरक्षण और सामाजिक चेतना का आधार एक साझा भाषा ही हो सकती है। जब हम हिंदी को अपनाते हैं और इसके माध्यम से संवाद करते हैं, तब हम केवल भाषा का प्रयोग नहीं कर रहे होते, बल्कि हम राष्ट्रीय चेतना, भाईचारे और सांस्कृतिक मूल्य का संरक्षण भी कर रहे होते हैं।

अत: हिंदी भाषा के महत्व को केवल शब्दों तक सीमित नहीं करना चाहिए। यह वह पुल है, जो भारत की विविधताओं को एक सूत्र में पिरोता है, विचारों और भावनाओं को जोड़ता है, संस्कृति और परंपराओं का संरक्षण करता है और सामाजिक और राष्ट्रीय चेतना को प्रबल बनाता है। स्वामी दयानंद सरस्वती जी का यह संदेश आज भी प्रत्येक भारतीय के लिए प्रेरणा का स्रोत है। जब हम हिंदी को अपनाते हैं, इसके माध्यम से संवाद करते हैं और इसके सांस्कृतिक और नैतिक मूल्यों को संरक्षित करते हैं, तो हम वास्तव में भारत को एक सशक्त, एकजुट और समृद्ध राष्ट्र बनाने में योगदान दे रहे होते हैं।

इस प्रकार, हिंदी केवल भाषा नहीं, बल्कि भारत की आत्मा, सांस्कृतिक धरोहर और राष्ट्रीय एकता का आधार है। स्वामी दयानंद जी के विचारों के अनुसार, यही कारण है कि “हिंदी द्वारा सारे भारत को एक सूत्र में पिरोया जा सकता है।”

हिन्दी भाषा के चंद लाईनें कविता के रूप में इस प्रकार हैं:
हिंदी में बहे ज्ञान और संस्कृति का रस प्यारा,
सब प्रांत और संस्कृतियाँ, संग लाएँ सहारा।
हम जब एक सूत्र में बंधें, भारत सारा हमारा,
भाषा से खिलता प्रेम, बढ़े एकता का सहारा।

योगेश गहतोड़ी “यश”

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