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शहर से गाॅंव ( भोजपुरी )



शहर में कहर बा ,
गाॅंव में बाटे छाॅंव रे ।
शहर भागे गाॅंव ,
कहाॅं मिली ठाॅंव रे ।।
शहर भागे गाॅंव ओरी ,
शहरे भागे ग्रामीण ।
गाॅंव छोड़ शहर जाईं ,
मेट जाई सब दुर्दिन ।।
गाॅंव ना रही गाॅंव ,
कहाॅं से मिली छाॅंव रे ।
घर बाहर घामे मिली ,
सेहत लाग जाई दाॅंव रे ।।
शहर में घनी आबादी ,
प्रेम बंधुत्व से बड़ा दूर ।
कुछ दिन बन लीं शहरी ,
मिजाज हो जाई चूर ।।
वापस लौट गाॅंव ना मिली ,
शहर में ना मिलल ठाॅंव रे ।
अबहूॅं से चेत जा ना त ,
अब कवन खेलब दाॅंव रे ।।
गाॅंव मेटी आ पेड़ कटी ,
पेड़ लागी कहाॅं घर में ?
स्वच्छ हवा ला पेड़ जरूरी ,
अब पेड़ कहाॅं सर में ?
रेत जस जमीं लहलह करी ,
घाम रूपी चली नाव रे ।
बेमारी तबहूॅं जबरन जकरी ,
गिर ना जा सकी बाॅंव रे ।।
लागी आक्सीजन कंपनी ,
आक्सीजन लगाईं नाक में ।
विदेश से आई चाउर गेहूॅं ,
जीवन मिल जाई खाक में ।।
घर से निकलीं घामा मिली ,
छाला पड़िहें पाॅंव रे ।
पेट मरोड़ पीडा होईहें ,
दिनभर बीती ऑंव रे ।।

पूर्णतः मौलिक एवं
अप्रकाशित रचना
अरुण दिव्यांश
छपरा ( सारण )
बिहार ।

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