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हिंदी: हमारी अस्मिता और राष्ट्रीयता की पहचान

हिन्दी दिवस पर विशेष

केवल उत्सव नहीं, राष्ट्रनिर्माण की भाषा बने हिंदी

नवनीत मिश्र

          हिंदी दिवस आते ही मंच सजते हैं, भाषण होते हैं और संकल्प लिए जाते हैं। लेकिन सवाल यह है कि क्या इतने से हिंदी का भविष्य सुरक्षित हो जाएगा? सत्य यह है कि हिंदी आज भी अपने ही देश में वह सम्मान नहीं पा सकी जिसकी वह हकदार है।
                 महात्मा गांधी ने कहा था “राष्ट्र की भाषा तो हिंदी ही हो सकती है।” आज़ादी की लड़ाई के दिनों में हिंदी ने ही जन-जन को जोड़ा और विदेशी शासन को ललकारा। लोकमान्य तिलक, भगत सिंह और सुभाषचंद्र बोस जैसे योद्धाओं ने हिंदी को आंदोलन और जागरण का माध्यम बनाया। लेकिन स्वतंत्रता के 75 वर्ष बाद भी विडंबना यह है कि हमारे शासन और प्रशासन की भाषा अंग्रेज़ी ही है। क्या हमने अंग्रेज़ों की सत्ता भले हटा दी, पर उनकी भाषा की सत्ता को और गहरा नहीं कर दिया?
                      संयुक्त राष्ट्र संघ में जब कोई भारतीय नेता हिंदी में भाषण देता है, तो हम गर्व से भर उठते हैं। किंतु यही गर्व क्षणिक क्यों रह जाता है? अपने ही विश्वविद्यालयों, न्यायालयों और सरकारी दफ़्तरों में हिंदी को “कमतर” समझा जाता है। यदि यह मानसिक गुलामी नहीं है, तो और क्या है?
                   दुनिया के वे देश जो अपनी मातृभाषा पर डटे रहे—जर्मनी, फ्रांस, जापान और चीन, आज विकसित राष्ट्रों की पंक्ति में खड़े हैं। उन्होंने यह कभी नहीं सोचा कि प्रगति किसी विदेशी भाषा के सहारे ही संभव है। फिर भारत क्यों अपनी ही भाषा से हिचकता है?
             तकनीकी क्रांति ने यह साबित कर दिया है कि हिंदी किसी भी दृष्टि से पिछड़ी भाषा नहीं है। आज इंटरनेट पर हिंदी सबसे तेजी से फैल रही भाषाओं में शामिल है। यूट्यूब, गूगल, व्हाट्सएप और सोशल मीडिया पर हिंदी सामग्री करोड़ों लोगों तक पहुँच रही है। बाजार मान चुका है कि भविष्य हिंदी का है। लेकिन नीतियों और निर्णयों में अंग्रेज़ी का दबदबा अब भी कायम है।
               असल संकट भाषा का नहीं, बल्कि मानसिकता का है। हमारी सोच अब भी यही है कि अंग्रेज़ी बोलना आधुनिकता की पहचान है और हिंदी का प्रयोग पिछड़ेपन की निशानी। जब तक यह सोच नहीं बदलेगी, तब तक हिंदी दिवस केवल एक औपचारिक उत्सव बनकर रह जाएगा।
                आज आवश्यकता है कठोर फैसलों की। प्रशासन, न्यायपालिका और उच्च शिक्षा में हिंदी को सशक्त रूप से लागू करना होगा। विज्ञान और तकनीकी ज्ञान को हिंदी माध्यम में उपलब्ध कराना होगा। समाज को यह स्वीकार करना होगा कि हिंदी किसी भी मायने में ज्ञान और प्रगति में बाधक नहीं, बल्कि सहायक है।
               हिंदी हमारी सभ्यता और अस्मिता की पहचान है। यदि हमने इसे केवल उत्सवों और औपचारिकताओं तक सीमित रखा, तो आने वाली पीढ़ियाँ हमें क्षमा नहीं करेंगी। अब समय आ गया है कि हम गांधीजी के उस स्वप्न को साकार करेंl जहाँ हिंदी केवल संवाद की भाषा न होकर राष्ट्रनिर्माण की धुरी बने।

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