
तत्र स्थितौ यत्नोऽभ्यासः ।
तत्र= उन दोनों में से; स्थितौ= {चित्तकी} स्थिरता के लिए; यत्न:= जो प्रयत्न करना है, वह; अभ्यास:= अभ्यास है ।
अनुवाद– इन दोनों {अभ्यास और वैराग्य} में से चित्त वृत्तियों को रोकने के लिए बार-बार यत्न करना ‘अभ्यास’ है ।
व्याख्या– इस सूत्र में ‘अभ्यास’ की व्याख्या करते हुए महर्षि कहते हैं कि चित्त की स्थिरता के लिए बार-बार जो प्रयत्न किया जाता है वह ‘अभ्यास’ है ।
मन बड़ा चंचल है । वह एक क्षण भी शान्त नहीं रहता । विचारों का प्रवाह है ही मन की चंचलता के कारण हैं । यह प्रवाह निद्रा में भी चलता रहता है । स्वप्न भी इसी प्रवाह से आते हैं ।
यह मन हजारों तरफ भागता है । इसे किसी एक ध्येय की ओर स्थिर करने की चेष्टा बारम्बार करना ‘अभ्यास’ है । इसकी अनेक विधियाँ विभिन्न शास्त्रों एवं धर्मों में खोजी गई हैं जैसे ध्यान भजन, कीर्तन, मंत्र जाप, किसी मूर्ति, चित्र आदि को आधार बनाकर अपने इष्ट देवता अथवा परमात्मा का ध्यान, त्राटक ॐ पर ध्यान, गुरुद्वारा दिए मंत्र का जाप, शरीर के किसी अंग विशेष जैसे भृकुटी, हृदय कमल, नाभि, श्वांस, प्रश्वांस पर ध्यान केंद्रित करना आदि अनेक विधियां हैं जिनसे मन किसी एक केंद्र पर केंद्रित होता है । इससे मन की शक्ति कई गुना बढ़ जाती है जिससे सिद्धियां भी प्राप्त होती हैं ।
साधक को इन सिद्धियों से बचकर इन शक्ति का उपयोग आत्मज्ञान हेतु करना चाहिए ।
मन के एकाग्र होने से वह शान्त नहीं होता । उसका उपयोग न करने से वह शान्त होता है किंतु थोड़े समय शान्त होने के बाद वह पुनः दूने वेग से भोगों की ओर भागता है । उस समय इस पर नियंत्रण आवश्यक है ।
जैसे उपवास करने पर बार-बार खाने की इच्छा होती है तथा चौबीस घंटे ध्यान भोजन की ओर ही जाता है ।
ध्यान में बैठने पर विचार अधिक तेजी से आते हैं इस प्रकार मन किसी एक केंद्र पर टिकता नहीं । इसलिए उसे बार-बार खींचकर उसे ध्येय की ओर प्रयत्न पूर्वक लगाना पड़ता है । यही ‘अभ्यास’ है ।
इसमें काफी लम्बा समय भी लग सकता है इसलिए साधक में धैर्य होना आवश्यक है । इसी पाद में सूत्र ३२ से ३९ तक इस स्थिर करने की कुछ विधियां बताई गई हैं । इनका प्रयोग करना चाहिए । ये अन्तरंग साधन है । बाह्य साधनों का वर्णन साधन पाद में किया गया है जिसमे आसन एवं प्राणायाम मुख्य है । इनसे भी चित्त स्थिर होता है । संसार के लिए गति आवश्यक है गति का नाम ही संसार है किंतु परमात्मा केंद्र पर है जहाँ कोई गति नहीं है । सब स्थिर है, ठहरा हुआ है ।
संसार पाना हो तो गति आवश्यक है, भाग, दौड़ संघर्ष आवश्यक है किंतु परमात्मा की प्राप्ति ‘करने’ से नहीं होती । अक्रिया ही उसको पाने का सूत्र है ।
जिस मन एवं शरीर की समस्त क्रियाएं रुक जाती हैं उसे समय आत्मज्ञान होता है ।
इसलिए यह अभ्यास कुछ करने के लिए नहीं बल्कि ‘न करने’ के लिए है ।
मन की वृत्ति सदा कुछ-ना-कुछ करने की है इसलिए अभ्यास द्वारा इसे ‘न करने’ में लगाना है, इसे स्थिर एवं शान्त करने में लगाना है जिससे इसकी सारी हलचल समाप्त हो जाए । आत्मज्ञान का यह एक ही मार्ग है ।
यह शरीर एक ऐसा मन्दिर है, जिसके बाहर विशाल संसार है एवं भीतर परमात्मा है । मन उसके द्वारा पर खड़ा है जो निरन्तर संसार की ओर मुंह किए हुए है व उसी को देख रहा है ।
यदि उसमें संसार के प्रति वैराग्य उत्पन्न किया जाए और परमात्मा के आनन्द की झलक दिखा दी जाए तो वह विपरीत मुख होकर आत्मानंद को प्राप्त हो सकता है । यही ‘योग’ है ।
स्रोत– पतंजलि योग सूत्र
लेख व प्रेषण–
पं. बलराम शरण शुक्ल हरिद्वार