
तर्ज : तुम्हीं मेरी मंदिर तुम्हीं मेरी __
दारू हमर मतारी ,
बापो हमर दारू ।
दारूए बा संहतिया ,
दारूए बा मेहरारू ।।
ना कवनो कमाई ,
मेहरारू के कमीनी ।
पईसो नाहीं देवे ,
ई मेहरारू कमीनी ।।
प्यार से जब खोजीं ,
गोरी केने तू बाड़ू ।
गोरी चले खिस में ,
हाथ में लेके झाड़ू ।।
दारू हमर मतारी ———- ।
भगावल गईलीं काम से ,
पीयले के कारण ।
घरे बतिया सुनके ,
मेहरारू दीहले ताड़न ।।
गईलीं सब्जी किने ,
हमर दोस्त रहे कारू ।
किने के रहे आलू ,
किन लिहलीं आड़ू ।।
दारू हमर मतारी ——— ।
चलल रहीं बाजार से ,
रस्ते में रहीं सुतल ।
बेहोशी के आड़ में ,
कुत्ता मुॅंह में मूतल ।।
आके हमरा टांग लिहले ,
मिलके आदमी चारू ।
तीन गो संहतिया रहले ,
एगो रहले साढ़ू ।।
दारू हमर मतारी ———— ।
घरे चार सिपाही आईल ,
नशा गईल तेल में ।
नशा अब नशाईल ,
खींच ले गईल जेल में ।।
घरे दईयो मईयो पड़ल ,
रोए लागल मेहरारू ।
अब ना पीहें छोड़ दीहीं ,
पति हमर गॅंवारू ।।
दारू हमर मतारी ——— ।
पूर्णतः मौलिक एवं
अप्रकाशित रचना
अरुण दिव्यांश
छपरा ( सारण )
बिहार ।