
(आलेख)
कूष्मांडा माता देवी दुर्गा के नौ रूपों में चौथे स्वरूप के रूप में पूजनीय हैं। उनका जन्म ब्रह्मा जी के सृजन के समय हुआ था। कहा जाता है कि वे सृष्टि की रचना करते समय अपनी दिव्य मुस्कान और ऊर्जा से प्रकट हुईं। उनकी माता-पिता के संबंध पुराणों में स्पष्ट रूप से वर्णित नहीं हैं, किंतु देवी भागवत और मार्कण्डेय पुराण में उन्हें आदिशक्ति के स्वरूप के रूप में मान्यता प्राप्त है। उनका जन्म हिमालय की पवित्र भूमि पर हुआ और उनका स्वरूप सूर्य की तरह तेजस्वी और आलोकमय है।
कुष्माण्डा देवी सृष्ट्याः आदिशक्ति रूपिणी।
मन्दस्मितैः जगत्सृजनं कृतवती सदा।।
सूर्यचन्द्रनक्षत्राणि ग्रहाश्चापि च तस्या।
सिंहवाहिनी तेजोमयी भक्तानां रक्षिका।।
अर्थ: मां कुष्मांडा देवी सृष्टि की आदिशक्ति हैं। उन्होंने अपनी मंद मुस्कान से सम्पूर्ण जगत की रचना की। सूर्य, चंद्रमा, नक्षत्र और ग्रहों की उत्पत्ति भी उन्हीं की कृपा से हुई। सिंह पर सवार, तेजस्विनी मां अपने भक्तों की सुरक्षा करती हैं।
माँ कूष्मांडा स्वास्थ्य, जीवन में शक्ति, सुख-समृद्धि और आध्यात्मिक ज्ञान की देवी मानी जाती हैं। नवरात्रि के चौथे दिन उनकी विशेष पूजा होती है। उनके आशीर्वाद से घर-परिवार में सुख-शांति, धन-वैभव और समृद्धि आती है।
पौराणिक और शास्त्रीय ग्रंथों के अनुसार, जब सृष्टि का कोई अस्तित्व नहीं था, चारों ओर केवल अंधकार का साम्राज्य था। उस समय न तो समय का निर्धारण था, न जीव-जंतु, न देवगण या दैत्य का अस्तित्व। केवल एक दिव्य शक्ति विद्यमान थी, जिसे आदिशक्ति कहा गया। मार्कण्डेय पुराण और देवी भागवत पुराण में वर्णित है कि इस अदृश्य ऊर्जा ने मां कुष्मांडा रूप में प्रकट होकर अपनी मंद मुस्कान मात्र से ब्रह्मांड की उत्पत्ति की। उनकी मुस्कान से सूर्य, चंद्रमा, नक्षत्र और दिशाओं का उद्भव हुआ। इस सृष्टि प्रक्रिया के परिणामस्वरूप उन्हें सूर्य मंडल की अधिष्ठात्री देवी भी कहा गया है।
मां कुष्मांडा का स्वरूप अत्यंत तेजस्वी और दिव्य है। अष्टभुजा देवी के रूप में उनकी आठ भुजाओं में क्रमशः कमल, धनुष-बाण, चक्र, गदा, अमृतकलश, जपमाला, कमंडलु और सिद्धिदायक अस्त्र विद्यमान रहते हैं। ये सभी अस्त्र और प्रतीक उनके भक्तों के लिए शक्ति, संरक्षण, स्वास्थ्य, सिद्धि और समृद्धि का प्रतीक हैं। उनका वाहन सिंह उनके अद्भुत तेज और सामर्थ्य का प्रतीक है। शास्त्रीय मान्यता के अनुसार उनका निवास सूर्य मंडल के मध्य में है और उन्हीं के तेजस्वी प्रभाव से सूर्य की किरणों में जीवनदायिनी प्राणशक्ति संचारित होती है। इस प्रकार मां कुष्मांडा न केवल सृष्टि की रचयिता हैं, बल्कि सम्पूर्ण जीवन प्रणाली की संरक्षक और संतुलनकारिणी शक्ति भी मानी जाती हैं।
मां कुष्मांडा की उपासना शास्त्रों में अत्यंत फलदायी बताई गई है। उन्हें अष्टसिद्धि और नवनिधि की प्रदायिनी माना जाता है। उनके पूजन से साधक को आयु, यश, बल, आरोग्य और धन-सम्पन्नता की प्राप्ति होती है। नवरात्रि के चौथे दिन मां कुष्मांडा की पूजा करने से रोग, शोक और संकटों का नाश होता है तथा साधक का आत्मबल और आत्मविश्वास सुदृढ़ होता है। देवी माहात्म्य में वर्णित है कि सूर्य के प्रचंड प्रकाश और ऊर्जा का स्रोत भी मां कुष्मांडा ही हैं। वे सूर्य की किरणों में प्राणशक्ति भरती हैं, जिससे सृष्टि में संतुलन और जीवन निरंतर बनाए रखा जाता है।
पौराणिक कथाओं में यह उल्लेखनीय है कि जब देवताओं और दानवों के बीच घमासान युद्ध हुआ और तीनों लोकों का संतुलन बिगड़ गया, तब मां कुष्मांडा रूप धारण कर प्रकट हुईं। अपने दिव्य तेज से उन्होंने संतुलन स्थापित किया और देवताओं को पुनः शक्ति प्रदान की। इस प्रकार मां कुष्मांडा केवल सृष्टि की रचयिता ही नहीं हैं, बल्कि संकटमोचन और संतुलनकारी शक्ति भी हैं।
नवरात्रि के चौथे दिन उनकी पूजा विशेष महत्व रखती है। श्रद्धालु प्रातः स्नान कर स्वच्छ वस्त्र धारण करते हैं और देवी की प्रतिमा अथवा चित्र के समक्ष दीपक जलाते हैं। पूजा में धूप, पुष्प, फल और विशेष रूप से कुष्माण्ड (कद्दू) अर्पित करना शुभ माना जाता है। यह अर्पण उस ऊर्जा का प्रतीक है, जिसने सम्पूर्ण ब्रह्मांड की उत्पत्ति की। भक्त मां का बीज मंत्र:
“ॐ ऐं ह्रीं क्लीं कुष्माण्डायै नमः”
का जप करते हैं। शास्त्रीय मान्यता है कि इस दिन की पूजा से भक्त को असाध्य रोगों से मुक्ति और दिव्य ऊर्जा की प्राप्ति होती है।
मां कुष्मांडा का जीवनदर्शन संतुलन, सृजन और सकारात्मक ऊर्जा का संदेश देता है। उन्होंने शून्य और अंधकार से ब्रह्मांड की रचना की, जो इस तथ्य का प्रतीक है कि कठिन परिस्थितियों में भी आशा और जीवन का बीज विद्यमान होता है। उनका अष्टभुजा स्वरूप यह दर्शाता है कि देवी हर दिशा में सक्रिय हैं और सभी शक्तियों की अधिष्ठात्री हैं। वे केवल रचना ही नहीं करतीं, बल्कि पालन और संतुलन भी स्थापित करती हैं।
अतः यह स्पष्ट है कि मां कुष्मांडा का जन्म किसी सामान्य पारिवारिक कथा से नहीं जुड़ा है। वे स्वयंभू आदिशक्ति हैं, जिन्होंने अपनी मंद मुस्कान से सृष्टि का आरंभ किया। मार्कण्डेय पुराण उन्हें सूर्य मंडल के मध्य स्थित बताता है, जबकि देवी भागवत पुराण उन्हें सृष्टि की आधारशिला मानता है। वे ही जीवन का मूल कारण, ऊर्जा का स्रोत और संतुलन की शक्ति हैं। उनका स्मरण और आराधना भक्तों को शक्ति, समृद्धि, संतुलन और जीवन का प्रकाश प्रदान करती है।
मार्कण्डेय पुराण (देवी माहात्म्य/दुर्गा सप्तशती) में मां दुर्गा के आठ स्वरूपों और विशेष रूप से कुष्मांडा देवी के तेजस्वी स्वरूप का विस्तृत विवरण मिलता है। देवी भागवत पुराण में सृष्टि की उत्पत्ति, आदिशक्ति के विभिन्न स्वरूपों और कुष्मांडा देवी की महत्वपूर्ण भूमिका का उल्लेख किया गया है। शिव पुराण में आदिशक्ति के विविध रूपों और सृष्टि निर्माण में कुष्मांडा देवी की महत्ता का वर्णन किया गया है। कालिका पुराण में देवी की महिमा और सृष्टि रचना एवं संरक्षण में उनकी शक्ति का विस्तृत विवरण उपलब्ध है। वहीं, देवी गीता में आदिशक्ति और उनके स्वरूपों का शास्त्रीय विवेचन किया गया है, जिससे कुष्मांडा देवी की सृष्टि में सर्वोच्च स्थिति और उनकी दिव्यता स्पष्ट होती है।
अष्टभुजा रूपेण सिद्धिनवनिधिप्रदा।
धन्याऽस्ति कुष्माण्डा देवी संकटमोचनि च ।।
कुष्माण्डकमलं सहितं तेजस्विनी सा।
भक्तजनानां जीवनं शक्तिप्रेमपूर्तये।।
अर्थ: मां कुष्मांडा देवी अष्टभुजा रूप वाली हैं और वे अष्टसिद्धि और नव निधि की दात्री हैं। वे अत्यंत धन्य और संकटमोचन हैं। उनके हाथ में कुष्मांड (कद्दू) और कमल सहित उनका तेज जगमगाता है। वे अपने भक्तों के जीवन में शक्ति, प्रेम और समृद्धि का संचार करती हैं।
मां कुष्मांडा देवी न केवल सृष्टि की रचयिता हैं, बल्कि संकटमोचन, संतुलनकारी और शक्ति प्रदायिनी देवी भी हैं। उनका स्मरण और आराधना भक्तों को शक्ति, समृद्धि, संतुलन और जीवन का प्रकाश प्रदान करती है। उनका तेज, उनकी मुस्कान और दिव्यता यह संदेश देती है कि कठिन समय में भी जीवन, आशा और सकारात्मक ऊर्जा हमेशा विद्यमान रहती है।
योगेश गहतोड़ी “यश”