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कहानी: “वक्त बेवक्त”

एक गाँव में दो दोस्त — नमन और धीरज रहते थे। बचपन से ही दोनों एक-दूसरे के लिए जान देने को तैयार रहते थे। गाँव के लोग अक्सर कहते, “नमन और धीरज की दोस्ती वक्त बेवक्त की नहीं, बल्कि सच्चे दिल की है!”

नमन पढ़ाई में तेज था, जबकि धीरज थोड़ा शांत और साधारण सोच का था। समय के साथ नमन शहर चला गया और एक अच्छी नौकरी करने लगा, जबकि धीरज गाँव में ही छोटा-मोटा काम करता रहा। लेकिन उनके बीच वक्त बेवक्त एक-दूसरे की मदद करने की आदत जस की तस बनी रही।

एक बार धीरज की माँ गंभीर रूप से बीमार पड़ गईं। इलाज के लिए पैसे नहीं थे। वह गाँव के हर घर का दरवाज़ा खटखटाता रहा, पर सभी ने यही कहा —
“अब वक्त ही खराब है, हम क्या कर सकते हैं?”

जब यह खबर नमन को मिली, तो वह एक पल भी गँवाए बिना शहर से दौड़ा चला आया। उसके पास भी बहुत पैसे नहीं थे, लेकिन जो कुछ था, वह लेकर धीरज के पास पहुँच गया। धीरज ने माँ को अस्पताल में भर्ती करवाया और इलाज शुरू करवाया।

धीरज की आँखें भर आईं। वह बोला — “तू तो अब बड़ा आदमी बन गया है, फिर भी वक्त बेवक्त दौड़ा चला आता है!”

नमन मुस्कराया और बोला — “दोस्ती अगर सच्ची हो, तो वक्त बेवक्त नहीं देखा जाता, बस साथ निभाया जाता है।”

कुछ महीनों बाद नमन की कंपनी में भारी छँटनी हुई और वह भी नौकरी से निकाल दिया गया। शहर के दोस्तों ने मुँह फेर लिया। वह टूट चुका था और समझ नहीं पा रहा था कि अब क्या करे।

तभी एक दिन धीरज गाँव से मोटरसाइकिल पर आया और बोला — “चल भाई, अब वक्त बेवक्त का कर्ज चुकाने की बारी मेरी है। मेरे पास कोई बड़ी नौकरी नहीं है, लेकिन एक छोटी सी दुकान है, हम दोनों मिलकर चलाएँगे!”

नमन की आँखें नम हो गईं। आज उसने समझा कि वक्त बेवक्त जो साथ देता है, वही असली रिश्ता होता है।

दोनों ने मिलकर उस दुकान को इतनी ईमानदारी और मेहनत से चलाया कि वह पूरे इलाके की सबसे भरोसेमंद जगह बन गई। उन्होंने उस दुकान का नाम “वक्त बेवक्त स्टोर्स रखा।

योगेश गहतोड़ी
नई दिल्ली

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