Uncategorized
Trending

तीर्थ — पंचप्रायश्चित का दूसरा आयाम               

१. प्रस्तावना

हमारे वेद, शास्त्र और पुराण बताते हैं कि मानव जीवन केवल कर्म करने तक सीमित नहीं है, बल्कि अपने आत्मा और मन को शुद्ध करना भी इसका प्रमुख उद्देश्य है। जीवन में कभी-कभी हम त्रुटियाँ करते हैं, पाप और अनुचित कर्म करते हैं, उन गलतियों का प्रभाव हमारी आत्मा पर पड़ता है। पंचप्रायश्चित का मार्ग हमें इन दोषों का प्रायश्चित करने और अपने मन और कर्मों को शुद्ध करने का अवसर प्रदान करता है।

तीर्थ यात्रा, पंचप्रायश्चित का दूसरा आयाम है। पवित्र स्थलों पर जाकर साधना, श्रद्धा और भक्ति के माध्यम से हम अपने भीतर शांति, संतुलन और सकारात्मक ऊर्जा का अनुभव करते हैं। तीर्थ न केवल स्थानिक दृष्टि से पवित्र होते हैं, बल्कि वे हमारे आत्मिक शोधन और मानसिक सुधार के प्रतीक भी हैं। इस प्रकार, तीर्थ यात्रा के माध्यम से व्यक्ति अपने जीवन को शुद्ध, संतुलित और आध्यात्मिक दृष्टि से समृद्ध बना सकता है। “तीर्थ” वह माध्यम है, जो हमें भीतर से शुद्ध करता है और ईश्वर के निकट ले जाता है।

२. तीर्थ का दार्शनिक स्वरूप

संस्कृत शब्द “तीर्थ” तृ (तरण) से बना है, जिसका अर्थ है “पार ले जाने वाला”। अर्थात् तीर्थ वह साधन है जो हमें दुःख, पाप और अज्ञान के सागर से पार ले जाकर मोक्ष के तट तक पहुँचाता है।

ऋग्वेद (१०.९.१) में कहा गया है —

“आपो हि ष्ठा मयोभुवस्त न ऊर्जे दधातन।”

जल केवल शारीरिक स्नान का साधन नहीं है, बल्कि यह ऊर्जा, आनंद और पवित्रता का स्रोत भी है। जल और तीर्थस्थल की पवित्रता हमारे मन और आत्मा को शुद्ध करती है और यह हमें अंदर से आध्यात्मिक रूप से भी मजबूत बनाती है।

मनुस्मृति में भी स्पष्ट कहा गया है —

“तीर्थानि पापहारिणि, शुद्धयन्ति मनांसि च।”

तीर्थ केवल पापों का नाश नहीं करता, बल्कि मन और हृदय को निर्मल और शांत बनाता है। इसलिए तीर्थ का दार्शनिक स्वरूप केवल भौतिक स्नान या पूजा तक सीमित नहीं है, बल्कि यह आंतरिक शुद्धि और आत्मा की उन्नति का माध्यम भी है।

३. बाह्य तीर्थ — पवित्र स्थलों का महत्त्व

भारतीय संस्कृति में गंगा, यमुना, नर्मदा, गोदावरी जैसी नदियाँ केवल जलधाराएँ नहीं, बल्कि जीवंत तीर्थ हैं। इन पवित्र स्थलों पर किया गया स्नान, दान, जप और ध्यान केवल शरीर की शुद्धि तक सीमित नहीं रहता, बल्कि यह मन और आत्मा को भी निर्मल बनाता है।

पद्मपुराण में कहा गया है —

“गङ्गा गीता च गायत्री गोविन्देति चतुर्गुणा।
पापानां नाशनं नॄणां भवसागरतातिनी॥”

यानी गंगा, गीता, गायत्री और गोविंद ये चारों मिलकर मनुष्य के पापों का नाश करने और उसे मोक्ष के मार्ग पर ले जाने वाली शक्तियाँ हैं।

महाभारत (वनपर्व, अध्याय ८३) में भी स्पष्ट कहा गया है —

“मनःशुद्धिं परां प्राप्य न शरीरस्य शोधनम्।”

इसका अर्थ यह है कि तीर्थयात्रा का वास्तविक उद्देश्य केवल शरीर की शुद्धि नहीं, बल्कि मन की शुद्धि और हृदय की निर्मलता प्राप्त करना है। इस प्रकार बाह्य तीर्थ हमें आध्यात्मिक दृष्टि से विकसित होने और आंतरिक संतुलन स्थापित करने का अवसर प्रदान करते हैं।

४. आंतरिक तीर्थ — आत्मा का पवित्र स्नान

आंतरिक तीर्थ का अर्थ है आत्मा का पवित्र स्नान, जो बाहरी स्थानों और जल-स्नान से परे है।

छांदोग्य उपनिषद (७.२६.२) में कहा गया है —

“य आत्मा अपहतपाप्मा विजरो विमृत्युर् विशोको विजिघत्सोऽपिपासः सत्यकामः सत्संकल्पः।”

इसका अर्थ है कि जो आत्मा पापरहित, शोकमुक्त और सत्यसंकल्पी है, वही सच्चा तीर्थ है।

शंकराचार्य ने भी कहा है —
“गङ्गा गीता गवां गोष्ठं गोविन्दो हृदि संस्थितः।
यदि न स्यादिति मूर्खः, कस्य तीर्थं करिष्यति॥”

यानी जब तक हृदय में ईश्वर का वास नहीं होता, तब तक बाहरी तीर्थ का जल और पूजाएँ व्यर्थ हैं।

शास्त्रों में स्पष्ट कहा गया है —

“न तीर्थं बाह्यदेशेषु, तीर्थं हृदि विद्यमानम्।”

अर्थात् तीर्थ केवल बाहरी स्थानों में नहीं, बल्कि हृदय और मन की निर्मलता में स्थित है। जब हम अपने भीतर के अहंकार, द्वेष और लोभ को त्यागते हैं और मन को शांति तथा आत्मा को ईश्वर-संयोग में लगाते हैं, तब वही आंतरिक तीर्थ वास्तविक और परम तीर्थ कहलाता है। इस प्रकार आंतरिक तीर्थ हमें आत्मा की शुद्धि, मानसिक शांति और दिव्य अनुभूति प्रदान करता है।

५. तीर्थ और प्रायश्चित

तीर्थ और प्रायश्चित का सम्बन्ध गहरा है। प्रायश्चित का मुख्य उद्देश्य है पाप का निवारण करना और आत्मा को पुनः धर्ममार्ग पर स्थापित करना।

मनुस्मृति में कहा गया है —

“तीर्थस्नानेन वा देहो यत्र पापं व्यपोहति।”

इसका अर्थ है कि तीर्थ-स्नान से केवल शरीर ही नहीं, बल्कि मन और आत्मा के पाप भी धुल जाते हैं। जब व्यक्ति गंगा, यमुना या अन्य पवित्र स्थलों में स्नान करता है और श्रद्धा एवं भक्ति से अपने पापों का स्मरण कर उन्हें त्यागता है, तो यह केवल बाहरी क्रिया नहीं रह जाती, बल्कि यह आंतरिक प्रायश्चित का प्रत्यक्ष अनुभव बन जाता है। गंगा की पवित्र लहरों में अपने पापों को विलीन होते देखकर व्यक्ति में आत्मबोध उत्पन्न होता है और उसके हृदय में शांति और संतुलन का दीप प्रज्वलित होता है। इस प्रकार तीर्थ यात्रा प्रायश्चित का जीवंत और अनुभूतिपूर्ण माध्यम बन जाती है।

६. तीर्थ की तीन अवस्थाएँ

तीर्थ की तीन अवस्थाएँ हैं, जो हमारे आध्यात्मिक विकास के विभिन्न आयामों को दर्शाती हैं।

1. देह-तीर्थ: देह-तीर्थ में शारीरिक स्नान, पूजा, दान और ध्यान शामिल हैं, जो शरीर और बाहरी कर्मों की शुद्धि प्रदान करते हैं।

2. वाणी-तीर्थ: वाणी-तीर्थ में तीर्थों की कथा श्रवण, स्तुति और कीर्तन शामिल हैं, जो हमारे वचन और श्रवण-संस्कार को शुद्ध करते हैं।

3. मन-तीर्थ: मन-तीर्थ, जहाँ व्यक्ति ईश्वर का अनुभव करता है, अपनी आत्मा को शुद्ध करता है और हृदय की निर्मलता प्राप्त करता है। यही सर्वोच्च तीर्थ है, क्योंकि यहाँ आत्मा स्वयं अपने भीतर स्नान करती है और बाहरी साधन केवल माध्यम बन जाते हैं।

इस प्रकार, तीर्थ केवल बाहरी यात्रा नहीं, बल्कि आंतरिक अनुभूति और आत्मा की उन्नति का प्रतीक है।

७. जीवन एक तीर्थयात्रा

मनुष्य जीवन में तीर्थ यात्रा का अर्थ केवल बाहरी स्थानों तक सीमित नहीं है।

आदि शंकराचार्य कहते हैं —

“दुर्लभं त्रयमेवैतत् देवानुग्रहहेतुकम्।
मनुष्यत्वं मुमुक्षुत्वं महापुरुषसंश्रयः॥”

इसका अर्थ है कि मनुष्यत्व, मुक्ति की इच्छा और संत-संग ये तीनों जीवन में दुर्लभ और ईश्वर की कृपा से प्राप्त होते हैं। जब हम अपने जीवन में सत्य, श्रद्धा, संयम और करुणा का पालन करते हैं, तो हर दिन, हर कर्म और प्रत्येक अनुभव हमारे लिए आत्मा की तीर्थयात्रा बन जाता है। अत: जीवन स्वयं एक तीर्थ है, जिसमें हम अपने भीतर की शुद्धता, आध्यात्मिक अनुभव और ईश्वर-संयोग की ओर निरंतर अग्रसर होते हैं।

८. शाश्वत संदेश

तीर्थ केवल भौतिक स्थल नहीं है, बल्कि मन और हृदय की निर्मलता प्राप्त करने का साधन है। जब हृदय गंगा के समान निर्मल, यमुना के समान शांत और नर्मदा के समान भक्तिमय हो जाता है, तब व्यक्ति स्वयं चलता-फिरता तीर्थ बन जाता है।

शास्त्रों में कहा गया है —

“तीर्थं न केवलं स्थलम्, अपि तु चित्तशुद्धेः साधनम्। अन्तःकरणं यदा निर्मलं भवति, तदा सर्वं जगत् तीर्थरूपं दृश्यते॥”

अर्थात् जब हृदय और चित्त में शुद्धता और पवित्रता आ जाती है, तो पूरा जगत् तीर्थ रूप में प्रकट होने लगता है। इस प्रकार तीर्थ न केवल बाह्य यात्रा का माध्यम है, बल्कि आंतरिक अनुभूति, आत्मा की शुद्धि, प्रायश्चित और ईश्वर-संयोग का संगम भी है। यही तीर्थ हमें अंतिम लक्ष्य—मोक्ष की ओर अग्रसर करता है।

अत: तीर्थ केवल बाहरी स्थल या जल-स्नान नहीं, बल्कि आत्मा, मन और हृदय की शुद्धि का माध्यम है। पंचप्रायश्चित के दूसरे आयाम के रूप में तीर्थ यात्रा हमारे पाप और त्रुटियों का प्रायश्चित कराती है। बाह्य तीर्थ शरीर, वाणी और कर्मों को शुद्ध करते हैं, जबकि आंतरिक तीर्थ हृदय में ईश्वर का अनुभव और मानसिक शांति प्रदान करता है। जब हृदय निर्मल, शांत और भक्तिमय हो जाता है, तब व्यक्ति स्वयं चलता-फिरता तीर्थ बन जाता है। इस प्रकार तीर्थ बाहरी साधना और आंतरिक अनुभूति का संगम है, जो आत्मा की उन्नति और मोक्ष की ओर ले जाता है।

योगेश गहतोड़ी “यश”

Related Articles

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *