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कविता

नजदीकियाँ बना ली है मैंने दूरियों से,उनकी लहजे उनके मुझे अब अच्छे नही लगते,
वो कहते कुछ और चाहते कुछ और है साहिब, इसीलिए,लहजे उनके मुझे अब अच्छे नही लगते।।

तमाम कोशिशे की, कि बने रहे रास्ते, पर मोड़ आए कुछ ऐसे कि वे रस्ते अब मुझे अच्छे नही लगते।।

इतना गुरूर ,लघुत्व मे उनकी ,गुरुत्व के अभिमान मे ,अरे मुफ़लिसी के ये राजे सच मे मुझे अच्छे नही लगते।।

सोचते तो होगे अभिमानी, जबकि हूँ स्वाभिमानी,पर अपनों के गुमान कब से मुझे अच्छे नही लगते।।

तुम कहो कुछ भी अच्छा या बुरा सरल,पर ये नफ़रत भरे लहजे सच मे मुझे अच्छे नही लगते।।

संदीप शर्मा सरल
देहरादून उत्तराखंड

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