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समाधिपाद – सूत्र १५

दृष्टानुश्रविकविषयवितृष्णस्य वशीकार संज्ञा वैराग्य ।

दृष्टानुश्रविकविषयवितृष्णस्य= देखे और सुने हुए विषयों में सर्वथा तृष्णारहित चित्त की; वशीकारसंज्ञा= जो वशीकार नामक अवस्था है वह; वैराग्यम्= वैराग्य है ।

अनुवाद– देखे और सुने हुए विषयों में सर्वथा तृष्णा रहित चित्त की जो वशीकार नामक अवस्था है वह ‘वशीकार वैराग्य’ है ।

व्याख्या— इस सूत्र में वशीकार वैराग्य के बारे में स्पष्ट किया गया है कि भोगों का साधन इंद्रियाँ हैं । इन्द्रियों ने जिनका भोग किया है उनसे हुए क्षणिक आनन्द की अनुभूति से उस विषय को बार-बार भोगने की तृष्णा पैदा होती है तथा इन्द्रियों द्वारा भोगे गए विषयों के अलावा जिन विषयों के बारे में केवल मात्र सुना है कि वे आनन्द देने वाले हैं उनसे भी तृष्णा बढ़ जाती है, यह तृष्णा देखने से पढ़ने से भी बढ़ती है; चाहे किसी ने इसका प्रत्यक्ष अनुभव न किया हो ।

योग साधना के द्वारा जब मन स्थिर हो जाता है तो इन सभी प्रकार के भोगों के प्रति जो तृष्णा है वह शान्त हो जाती है । चित्त की इस प्रकार की स्थिति को वशीकार वैराग्य कहते हैं ।
इसी को अपर वैराग्य भी कहते हैं । इस अपर वैराग्य की स्थिति में साधक को स्वर्ग के सुख भोग की तृष्णा भी नहीं रहती ।

स्रोत– पतंजलि योग सूत्र
लेख एवं प्रेषण–
पं. बलराम शरण शुक्ल हरिद्वार

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