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समाधिपाद सूत्र– १६

तत्परं पुरुषख्यातेर्गुणवैतृष्ण्यम् ।

पुरुषख्याते= पुरुष के ज्ञान से; गुणवैतृष्ण्यम् = जो प्रकृति के गुणों में तृष्णा का सर्वथा अभाव हो जाना है; तत्= वह; परम्= पर- वैराग्य है ।

अनुवाद– पुरुष के ज्ञान से {आत्मज्ञान होने पर} प्रकृति के गुणों में तृष्णा का सर्वथा अभाव हो जाना ‘परम वैराग्य’ है ।

व्याख्या– उपयुक्त सूत्र में वर्णित वैराग्य सामान्य है, ऊपरी-ऊपरी है । इसमें तृष्णा का अभाव तो हो जाता है किंतु चित्त की वृत्तियाँ जीवित रहती हैं; जिससे वह पुनः भोगों की ओर जा सकती है । इस सूत्र में वैराग्य की सर्वोच्च स्थिति को बताया गया है जिसमें आत्मज्ञान हो जाने पर प्रकृति के गुणों में भी तृष्णा का सर्वथा अभाव हो जाता है । वशीकार वैराग्य होने पर प्रकृति के गुणों का जो वीज विद्यमान था उसका भी आत्मज्ञान होने पर नाश हो जाता है,

इसलिए तृष्णा के बीज के ही नष्ट हो जाने से फिर उसका पुनः उदय संभव नहीं है । इस प्रकार का वैराग्य ‘परम वैराग्य’ है । इसे ‘पर वैराग्य’ भी कहते हैं ।

इन दोनों सूत्रों से स्पष्ट होता है कि वैराग्य लिया नहीं जाता वह घटित होता है ।

यह साधना नहीं बल्कि उपलब्धि है, यह ऊपर से ओढ़े गए मुखौटे जैसा नहीं है बल्कि भीतर हुए परिवर्तन का परिणाम है । ऊपर से चोला बदलकर वैराग्य ग्रहण करने वाले वैरागी नहीं हो सकते । भोगों की वासना का क्षय आत्मज्ञान के बिना नहीं हो सकता । जब तक परम् सुख नहीं मिल जाता तब तक क्षुद्र एवं अनित्य सुख के प्रति वासना बनी रहती है अतः यह परम वैराग्य की स्थिति नहीं है । संसार से चिढ़ना उसे गाली देना वैराग्य के लक्षण नहीं हैं । संसार से दुखी होकर उससे भाग जाना, संसार में दु:ख ही दु:ख है ऐसा कहना, संसार से घृणा करना आदि भी वैराग्य नहीं है ।
यह रुग्ण मस्तिष्क की उपज है । अंगूर ना मिलने पर उन्हें खट्टे कहने जैसा है । भोग के बाद आए हुए वैराग्य में कुछ सत्यता है किंतु आत्मज्ञान के बाद संसार के क्षुद्र सुख अपने आप छूट जाते हैं यह सच्चा वैराग्य है । परमात्मा की प्राप्ति पर फिर भौतिक बंधन कैसे रह सकते हैं । भगवान् कृष्ण के जन्म के साथ ही जिस प्रकार सभी अज्ञानी पहरेदार सो जाते हैं, सभी ताले, किवाड़, बेड़िया आदि अपने आप खुल जाती हैं
तथा चेतना इस अज्ञान के कारागारगृह से मुक्त हो जाती है । यही आध्यात्म का रहस्य है ।।

स्रोत– पतंजलि योग सूत्र
लेख एवं प्रेषण–
पं. बलराम शरण शुक्ल हरिद्वार

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