
स तु दीर्घ कालनैरन्तर्यसत्काराऽऽसेवितो दृढ़भूमि: ।
तु=परंतु; सः= वह {अभ्यास}; दीर्घकालनैरन्तर्यसकारासेवितः= बहुत कल तक निरंतर लगातार और आदर पूर्वक सांगोपांग सेवन किया जाने पर; दृढ़भूमि:= दृढ़ अवस्था वाला होता है ।
अनुवाद— परन्तु वह अभ्यास दीर्घकाल तक निरंतर श्रद्धा पूर्वक सेवन किए जाने पर दृढ़ अवस्था वाला हो जाता है ।
व्याख्या— आत्मज्ञान के लिए चित्त को बार-बार यत्नपूर्वक रोकने का निरन्तर अभ्यास करना आवश्यक है । इस अभ्यास में काल की कोई अवधि नहीं है । लम्बा समय भी लग सकता है पूरा जीवन भी लग सकता है फिर भी उपलब्धि न हो । इसलिए साधक में इतना धैर्य होना चाहिए तथा यह भी दृढ़ विश्वास होना चाहिए कि योग के लिए किया गया प्रयत्न कभी व्यर्थ नहीं जाता ।
वह अगले जन्म में भी संस्कार रूप में विद्यमान रहेगा जिससे प्रगति शीघ्र होगी । अभ्यास में व्यवधान भी नहीं आने देना चाहिए तथा नियमित एवं निरन्तर चलते रहना चाहिए । अभ्यास में आलस्य व प्रमाद न करें, बल्कि उसे श्रद्धा पूर्ण श्रद्धा एवं भक्ति के साथ जीवन का अंग मानकर दैनिक कार्यक्रम में सम्मिलित कर लें । बिना भक्ति के अभ्यास नहीं होता । मन्दिरों में जिस प्रकार किराए के पुजारी सेवा करते हैं जिन्हें जीवन भर पूजा करने पर भी लाभ नहीं होता ऐसी, पूजा भक्ति एवं अभ्यास से कोई लाभ सौ जन्मों तक भी नहीं हो सकता । क्योंकि इन्हें भक्ति की नहीं, अपने वेतन की चिंता है ।
{कहते हैं पहले किसी समय उत्तराखंड में स्थित बद्रीनाथ मंदिर की मूर्ति को उसका पुजारी अलकनंदा नदी में फेंक कर चला गया क्योंकि वहां कोई यात्री आते ही नहीं थे जिससे उनका भेंट पूजा नहीं मिलती थी । पुजारी का ध्यान भेंट पूजा पर ही रहता है जिससे उन्हें आध्यात्मिक सम्बन्धी ज्ञान की उपलब्धि नहीं होती ।}
इसलिए अभ्यास भक्ति पूर्वक होने पर ही वह दृढ़ अवस्था वाला होता है, तभी उपलब्धि होती है ।
एक बार जिसकी दृढ़ भूमि तैयार हो गई फिर अभ्यास की आवश्यकता नहीं रह जाती । इसके बाद चलते-फिरते खाते पीते भीड़ आदमी बातचीत करते हुए मन शान्त बना रहता है ।।
स्रोत– पतञ्जलि योग सूत्र
लेखन व प्रेषण–
पं. बलराम शरण शुक्ल हरिद्वार